New Delhi News, 19 March 2019 : फाल्गुन का महीना आ चुका है और एक बार फिर रंगों का त्यौहार होली अपनी रंग-बिरंगी फुहारें लिए हमारे द्वार पर दस्तक दे रहा है। इस समय प्रकृति अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य में खिली हुई है। वसंत की सतरंगी छुअन से धरती का जर्रा-जर्रा जीवंत होकर मानो यही गा रहा है कि- ‘होली है!’
कई शताब्दियाँ बीत गई हमें होली मनाते-मनाते। हर वर्ष होली के कई रंगों ने रंगा है, फागुन के कई गीतों पर हम एक साथ मिलकर झूमे हैं। होली की शुद्ध और प्रेममयी फुहारों में कई बार भीगा है हमारा तन-मन। परन्तु विडम्बना यह है कि वर्तमान समय में यह पर्व अपना ऐसा शुद्ध एवं पावन स्वरूप खोता जा रहा है। इसकी पुरानी गरिमा धूमिल पड़ती जा रही है।
पर वहीं, जरा अपने इतिहास के पन्ने पलट कर देखें। द्वापर युग में वृन्दावन व बरसाने में खेली गई होली को याद करें। उस समय की होली न केवल रंग, गुलाल, चंदन, अबीर की सम्मोहकता लिए आती थी, बल्कि साथ ही साथ प्रेम और भक्ति की खुशबू भी हर ओर बिखेर देती थी। उसमें पवित्रता एवं सरसता का एक अद्भुत तालमेल हुआ करता था। यह इसलिए सम्भव हो पाया था क्योंकि तब होली की उमंग खाली बाहरी परम्पराओं तक ही सीमित नहीं थी। गोप-गोपिकाओं ने अपने हृदय की ब्रजभूमि पर कान्हा के संग आंतरिक होली भी खेली थी। प्रभु श्री कृष्ण के साथ बाहर होली खेलकर उन्होंने अपना मन व रोम-रोम भक्ति के मजीठ रंग में रंग लिया था। उनकी केवल देह ही नहीं अन्तरात्मा भी भीगी होती थी। कान्हा ने अपने इन अनन्य भक्तों पर कभी न उतरने वाला भक्ति का रंग बरसाया था, तो इन्होंने भी प्रभु के चरणों में प्रेम व श्रद्धा का गुलाल उड़ेल दिया था। भक्तिमयी मीरा ने जब अपने भीतर प्रभु के साथ ऐसी दिव्य होली खेली, तो वे कह उठीं- “चिर आनन्द व संतोष के केसर-गुलाल ने मेरे भक्ति-सौन्दर्य को और अधिक निखार दिया है। बाहरी वाद्य यंत्रों के बिना ही मेरे भीतर अनहद नाद की सुमधुर तानें गूंज उठी हैं।” पर मीरा अपने भीतर फाग की ऐसी उमंग कब अनुभव कर पाई थी? तभी जब मीरा को सतगुरु रविदास जी ने ‘ब्रह्मज्ञान’ प्रदान किया था; ईश्वर के ज्योति स्वरूप का साक्षात् दर्शन करा दिया था। ईश्वर के दर्शन करने के बाद ही मीरा पर भक्ति का ऐसा प्रगाढ़ रंग चढ़ा कि उसके सामने संसार के सभी रंग फीके पड़ गए|
भक्त प्रह्लाद होली पर्व से जुड़ा एक और यादगार पात्र है। वह भी नख से शिख तक भक्ति के ऐसे ही दिव्य रंगों में रंगा था। पौराणिक आख्यान है कि पांच वर्षीय प्रभु के भक्त प्रह्लाद को भक्ति मार्ग से हटाने के लिए उसके अहंकारी पिता हिरण्यकश्यपु ने उसे अनेकों यातनाएँ दीं। प्रह्लाद को कभी शूलों पर सुलाया गया, कभी पहाड़ों से गिराया गया, तो कभी विषैले सर्पों की कोठरी में डाल दिया गया। किन्तु ‘जाको राख साइयां, मार सके न कोय’- कुछ ऐसा ही प्रह्लाद के साथ भी हुआ। प्रभु चरणों में उसकी भक्ति, अटल विश्वास एवं ईश्वरीय कृपा ने प्रत्येक संकट में उसकी रक्षा की।
अपनी हर कोशिश को यूं निष्फल होता देखकर, प्रह्लाद का पिता एवं उसकी बहन होलिका ने एक और घातक षड़यंत्र रचा। होलिका को तप के फलस्वरूप एक ऐसा वस्त्र प्राप्त था जो अग्नि में भी जलता नहीं था। स्वयं इस वस्त्र को ओढ़ कर, वह धधकती हुई अग्नि में बालक प्रह्लाद को गोद में लेकर बैठ गई। हर बार की तरह, यहाँ भी ईश्वरीय चरणों का आश्रय लिए भक्त की ही विजय होती है। हवा का एक तेज झोंका आता है और वह वस्त्र होलिका के तन से उड़कर प्रह्लाद का जीवन रक्षक बन गया। प्रह्लाद वैसे ही भक्ति रस में भीगता रहा। परन्तु होलिका अग्नि की भीषण लपटों में जलकर भस्म हो गई। इस अलौकिक घटना की याद में प्रतिवर्ष लकडि़यों व उपलों की एक वेदिका बनाकर होलिका को जलाया जाता है। यह रीति अधर्म पर धर्म, अहंकार पर प्रभु-भक्त की सच्ची भावना की विजय की प्रतीक है। यह प्रतीक है उस भक्ति की जो ब्रह्मज्ञान द्वारा प्राप्त होती है। एक साधक निरन्तर साधना द्वारा इस ज्ञान की अग्नि में होलिका के समान अपने सभी कुसंस्कारों, वासनाओं को स्वाहा कर देता है। इस तरह अपने भीतर ही ‘होलिका-दहन’ मनाता है। जिस प्रकार परम्परा के अनुसार ‘होलिकादहन’ के बाद ही, अगले दिन रंग-गुलाल की होली मनाई जाती है। उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान द्वारा आंतरिक होलिकादहन मनाने के बाद ही हम भक्ति के रंगों में रंग पाते हैं। मीरा, गोप-गोपिकाओं व अन्य भक्तों की ही भाँति ऐसे विलक्षण होलिकोत्सव को मना पाते हैं, जिसका आदि तो होता है, परन्तु अन्त नहीं।