श्री गणपति के अनन्य स्वरूपों से प्रेरणा प्राप्त कर जीवन को सुंदर दृष्टिकोण प्रदान करें : आशुतोष महाराज

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New Delhi, 22 Aug 2020 : ‘गणपति बाप्पा मोरया!’ ‘गणपति बाप्पा मोरया!’… महाराष्ट्र की गलियों में आप इन जय-धुनों को इस अगस्त माह में भरपूर रूप से सुन सकते हैं। जैसे-जैसे गणेशोत्सव की पदचाप बढ़ती है और यह महापर्व निकट आता है, वैसे-वैसे यह जयधुन ऊँची और प्रखर होती चली जाती है-‘गणपति बाप्पा मोरया!’ लेकिन क्या जो हम कहते हैं, उसका सही अर्थ भी समझते हैं? जो हम करते हैं, उन क्रियाओं में छिपे रहस्यों को भी जानते हैं? बंधुओं! भला बाहरी छिलकों से किसे स्वाद मिला है? मीठा रस तो थोड़ा गहराई में उतर कर ही मिलता है।

‘गणपति बाप्पा मोरया’ भी एक ऐसा ही सांकेतिक फल है। बोलने में निःसन्देह मीठा है। मगर इसकी असली मधुरता इसका गूढ़ अर्थ जानने से मिलती है। क्या है इसका गूढ़ार्थ? ‘बाप्पा’ प्यार से भगवान गणपति के सगुण स्वरूप को कहा गया है। ‘मोरया’, जिसे मराठी में ‘समोर या’ भी कहते हैं, का मतलब होता है -‘सामने आ!’ इसलिए ‘गणपति बाप्पा मोरया’ का पूरा अर्थ हुआ-‘हे गणपति देवा! तू सगुण रूप में हमारे सामने आ! तू साकार होकर हमारे जीवन में उतर!’

ऐसा नहीं है कि बाप्पा ने हमारी इस विनय को हमेशा अनसुना किया हो। मुद्गल पुराण में विघ्नविनाशक गणपति के अनेक अवतारों का वर्णन है, जिनमें वे सगुण रूप धरकर हमारे सामने आए। अगर उन अवतारों के केवल नाम-नाम भी हम यहाँ लिखेंगे, तो न जाने कितने पृष्ठ भर जाएँगे? इसलिए कह सकते हैं कि अनंत बार बाप्पा ने हमारी ‘गणपति बाप्पा मोरया’ की अर्जी को स्वीकार किया है।

आइए श्री गणपति के उन अनंत अवतारों में से मुख्य अवतार – वक्रतुण्ड को समझने का प्रयास करते हैं। क्योंकि इसी के बीच से आपको एक रहस्यात्मक सूत्र मिलेगा, जिसके द्वारा आप आज भी गणपति बाप्पा को अपने जीवन में प्रकट कर सकते हैं।
वक्रतुण्ड अवतार – कहते हैं कि एक बार देवराज इन्द्र में भरपूर प्रमाद अथवा आलस्य आया। उस प्रमाद से एक असुर ने जन्म लिया, जिसका नाम था ‘मत्सर’। उसने जन्मते ही दैत्यगुरु शुक्राचार्य जी से मंत्र-दीक्षा ली और कठोर तपस्या की। इस घोर तप के फलस्वरूप भगवान शिव प्रकट हुए और उसे अभय दान दिया- ‘जाओ, आज से तुम्हें किसी का भय नहीं रहेगा।’ बस अब क्या था! वर प्राप्त होते ही मत्सरासुर आतंकी बन गया। दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने उसे दैत्यराज के पद पर भी अभिषिक्त कर दिया। अब तो अपनी विशाल वाहिनी सेना लेकर मत्सरासुर लोक-लोकांतरों में हिंसा का नग्न तांडव करने लगा। उसने देवताओं से स्वर्ग लोक छीनकर अपने शासनाधीन कर लिया। देवगण विकल और असहाय हो गए।

इन विकट परिस्थितियों में भगवान दत्तात्रेय का आगमन हुआ। उन्होंने देवताओं को ‘एकाक्षरी मंत्र’ प्रदान किया। देवगण आँखें मूँद कर सच्चे हृदय से इस मंत्र की साधना करने लगे। आखिरकार, उनसे अति प्रसन्न होकर भगवान श्री गणपति भव्य ‘वक्रतुण्ड’ रूप में प्रकट हुए। उन्होंने बुलंद घोषणा की- ‘आप सभी निश्चिंत हो जाइए। मैं मत्सरासुर के गर्व को खर्व कर दूँगा।’ ऐसा कहकर वक्रतुण्ड सीधे शत्रु की राजधानी पहुँचे, घोर नाद करते हुए उसे ललकारा। मत्सरासुर कुपित हुआ और तत्क्षण समर भूमि में पहुँच गया। पाँच दिनों तक भयंकर युद्ध चला।

मत्सरासुर के दो पुत्र थे-‘सुन्दरप्रिय’ और विषयप्रिय’। भगवान वक्रतुण्ड की प्रेरणा से गणों ने मत्सरासुर के इन पुत्रों का वध कर दिया। यह देख मत्सरासुर अत्यन्त व्याकुल हो उठा। उसने दृष्टि उठाकर देखा। भगवान वक्रतुण्ड महाकाय भयावह काल रूप में उसके सामने उपस्थित थे। वह भय से थरथर काँपने लगा और उसका सारा गर्व चूर्णित हो गया| वक्रतुंड के श्री चरणों में गिरकर स्तुति करने लगा। हृदय से विनय कर उठा। भगवान वक्रतुण्ड संतुष्ट हुए और उसे क्षमादान किया। बोलिए, वक्रतुण्ड रूप धारी भगवान गणपति की जय! इस प्रकार की अनेक गाथाएँ पुराणों में वर्णित हैं, जो श्री गणपति के मुख्य 8 अवतारों को निरुपित करती हैं। वक्रतुण्ड की गाथा के समान इन समस्त अवतरणों से सम्बन्धित भी अनेक गाथाएँ पुराणों में दी गई हैं। भिन्न होने पर भी इन सभी गाथाओं में कुछ तथ्य एक समान ही हैं। जैसे कि- किसी ‘विकार’ नामक असुर का उत्पन्न होना… उसका दैत्य गुरु का संबल पाकर सबल हो जाना… फिर आतंक व अत्याचार का तांडव करना… देवों और सज्जनों को प्रताडि़त करना… सज्जनों की विकल पुकार पर किसी सत्पुरुष या सद्गुरु का पदार्पण होना और पीडि़तजनों को एकाक्षरी मंत्र प्रदान करना… सज्जनों का साधनारत होना… उनकी साधना के अलौकिक प्रभाव से ब्रह्मरूप श्री गणेश का अवतरित होना व क्रूर असुर को परास्त करना।

दरअसल, यह सम्पूर्ण घटनाक्रम स्पष्ट रूप से अलंकारिक है। हमें गूढ़ संदेश देता है। इन पौराणिक गाथाओं का मंचन कहीं बाहर नहीं, हमारे हृदयों में होता है। आज हमारी हृदय-भूमि पर भी कभी कोई विकार सिर उठाता है, कभी कोई विकार! ये विकार ‘असुर’ ही तो हैं। मत्सरासुर, मदासुर, मोहासुर, लोभासुर, क्रोधासुर, कामासुर, ममतासुर (आसक्ति) व अभिमानासुर- हर सूँ हमारी हृदय-नगरी में उत्पात मचाते रहते हैं। हमारे शुभ विचारों व भावनाओं (देवों अथवा सज्जनों) को प्रताडि़त करते हैं। शुभ-शक्तियों का सिंहासन छीन लेते हैं। हमारे जीवन को विकारों, विषयों व अधर्म का जीवंत उदाहरण बना डालते हैं। ऐसे में क्या किया जाए? श्री गणपति की अवतार-गाथाएँ हमें प्रेरणा देती हैं। ऐसे में, एक ब्रह्मज्ञानी सतगुरु ही हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं। अतः हमें प्राणपन से उन्हीं की खोज करनी चाहिए और उनसे एकाक्षरी मंत्र का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। यह एकाक्षरी मंत्र क्या है? पुराणों के अंतर्गत देवी पार्वती भी भगवान शिव से जिज्ञासा करती हैं-‘भगवन्, कृपा कर मुझे एकाक्षरी मंत्र का रहस्य बताइए।’ उत्तरस्वरूप महादेव कहते हैं- ‘हे देवी! यह एकाक्षर मंत्र कवच रूप है अर्थात् महारक्षक है तथा अति दुर्लभ है। इसे धारण करने वाले के जीवन में कभी विघ्न नहीं व्याप्ते और उसे सर्वसिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं।’

माँ पार्वती ने पुनः पूछा-‘परन्तु भगवन्! इस मंत्र को कहाँ से अथवा किसके द्वारा प्राप्त किया जा सकता है?’ महादेव ने कहा- ‘जो सज्जन भक्तियुक्त होकर सद्गुरु के परायण हो जाता है, उसे ही वे ब्रह्मज्ञान प्रदाता गुरुदेव यह मंत्र प्रदान करते हैं।’ वास्तव में, यह महिमावान एकाक्षर हिन्दी वर्णमाला का कोई ‘स्वर’ या ‘व्यंजन’ नहीं है। इसे वाणी के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह तो वही आदिनाम है, परम शब्द, word है, जो सृष्टि के आदिकाल में भी था। इसी आदिनाम से सृष्टि का विस्तार हुआ और यही हमारे प्राणों को संचालित कर रहा है। एकाक्षर = ‘एक’+ ‘अक्षर’, याने वह ‘एक’ सत्ता, जो ‘अ’+‘क्षर’ है जिसका कभी क्षरण नहीं होता। सारांशतः एकाक्षर, उस ‘एक अविनाशी’, ‘एक अनश्वर’ सत्ता को ही कहा गया। सद्गुरु अपनी महती कृपा से (हमारे कानों में कोई स्वर नहीं डालते, अपितु) ब्रह्मज्ञान प्रदान कर इसी अविनाशी ब्रह्म को या आदिनाम रूप तरंग को हमारे भीतर प्रकट कर देते हैं। इस अलौकिक ब्रह्मज्ञान की साधना के फलस्वरूप ही साधक में श्री गणेश का प्राकट्य होता है।

श्री गणेश तत्त्वतः क्या हैं? ज्ञानेश्वरी की शुरुआत में ही श्री ज्ञानेश्वर महाराज गणपति वंदना करते हुए लिखते हैं- ‘हे गणेश देवा! आपको नमस्कार है। आप सृष्टि के आदिस्रोत हैं, वेदों के प्रतिपादक हैं, सबके आत्मस्वरूप हैं। आपके प्रकट होते ही बुद्धि में सफल अर्थ प्रकाशित हो जाते हैं।’ इसी प्रकार ‘दासबोध’ के मंगलाचरण में स्वयं समर्थ रामदास जी भी कहते हैं- ‘हे गणेन्द्र! नमन है आपको, आप विद्या प्रकाशित करने वाले पूर्ण चन्द्रमा हैं। जिसके कारण हृदय में ‘बोध’ का समुद्र लहरा उठता है।’

अतः श्री गणपति तत्त्वरूप में ‘सुबोध’ या ‘विवेक’ के देवता हैं। श्री गणपति का प्राकट्य अंतहृर्दय में आत्मबोध का जागरण है। विवेक का प्रकाश अथवा आत्मा-ज्ञान होते ही हमारे भीतर का अज्ञान जडि़त साम्राज्य खंड-विखंड होने लगता है। उसमें निवास कर रहे असुर त्राहि-त्राहि कर उठते हैं और परास्त होते चले जाते हैं। उनकी दशा और दिशा दोनों ही सकारात्मक होती चली जाती है। यही है, अंतर्हृदय में श्री गणपति का अवतरण!

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