New Delhi, 04 Sep 2020 : किसी ने खूब कहा है, ‘सामान्य और सर्वोत्तम शिक्षक में अंतरसिर्फ एक प्रेरणा’ का ही हैऔर यह अक्षरशः सत्य भी है। जहाँ एक सामान्य अध्यापक सिर्फ जानकारियों को बाँचता है; वहीं एक सर्वोत्तम अध्यापक छात्र की जिज्ञासा को प्रेरणा-रूपी पंख लगाकर ज्ञान के असीम आकाश में उड़ना सिखाता है। आइए, वैदिक आचार्यों के ऐसे ही कई मूलभूत गुणों को आज के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करते हैं।
अथर्ववेद का आरंभिक श्लोक वैदिकसमय के शिक्षकों की विशिष्टताओं का बखूबी चित्रण करता है। इस मंत्र में शिक्षक की चार विशिष्टताओं पर प्रकाश डाला गयाहै। पहली, एक अध्यापक को वाचस्पतिहोना चाहिए। दूसरा, शिक्षक को देव-मनसे युक्त होना चाहिए। तीसरा, एक अध्यापक को वसुपति भी होना चाहिए।चौथीयोग्यता है, अध्यापक का पढ़ाने का ढंग रमणीय और रोचक हो।
शिक्षक ‘वाचस्पति’ हों!
वैदिक दृष्टिकोण- वेद ने श्रेष्ठ शिक्षक की पहली योग्यता- ‘वाचस्पति’ अर्थात्वाणी का अधिपति होना कहा है। एक ऐसा अध्यापक जिसका अपनी बोली परपूर्णतया अधिकार हो। जिसकी शब्दों पर मजबूत पकड़ हो और संवाद शैली प्रखरहो। मतलब जो वह कहना, समझाना चाहता हो, उसे वह छात्रों के समक्ष बखूबी तौरपर रख सके। क्योंकि अगर आप एक कुशल प्रवक्ता नहीं हैं, तो आप विद्यार्थियोंके समक्ष अपने विचारों को सही तरीके से व्यक्त ही नहीं कर पाएँगे। जिस विषयमें आप उन्हें शिक्षित करना चाहते हैं, वह उद्देश्य अपूर्ण ही रह जाएगा।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य- इसी तथ्य कोस्लोवेनिया के ‘जुबज़ाना विश्वविद्यालय’ केप्रोफेसर ‘टमाज पेटक’ने भी अपनेशोध में सिद्ध किया। सन् 2012 मेंप्रकाशित रिसर्च पेपर में वे कहते हैं,‘प्रभावी ढंग से संवाद करने की क्षमताशिक्षक की मूल दक्षताओं में से एकहै। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक का अच्छावक्ता होना बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिकाअदा करता है।’
शिक्षक ‘देव-मन’से युक्तम हों!
वैदिक दृष्टिकोण- अब अध्यापककी दूसरी महत योग्यता है कि उसे ‘देव-मन’से युक्त होना चाहिए।अध्यापक का देव-मन से युक्त होनेका आशय है- एक ऐसा शिक्षकजिसका मन दैवीय-वृत्तियों से युक्तहो। जो अपने द्वारा अर्जित ज्ञान कोविद्यार्थियों को दान देने में संकोच नकरे। जिसका व्यक्तित्व आभावान औरआकर्षित करने वाला हो। जिसके कक्षामें आने से छात्रों का मन खिन्नता और उदासी से नहीं, अपितु उत्साह और प्रसन्नतासे चमक उठे। वह अध्यापक जो विद्यार्थी के साथ ऐसा अनूठा सम्बन्ध स्थापित करे,जो संवेदना, विश्वास, निःस्वार्थता और उत्तरदायित्व के भावों से दीप्तिमान हो। जहाँछात्र बिना संकोच के सफलता और श्रेष्ठता की ओर कदम बढ़ायें।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य- ‘ब्रिटिश कोलंबिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ (कनाडा)की‘मैरी गिलेस्पी’ने शिक्षक-छात्र सम्बन्ध पर अपना रिसर्च पेपर लिखा। इसमें उन्होंनेटीचर-स्टूडेन्ट रिलेशनशिप के चार मूलभूत सद्भाव- ‘प्रवाह’, ‘समझ’, ‘भरोसा’ और‘आपसी-आदर’ को पहचाना। उनका कहना है कि इन्हीं सद्भावों से कक्षा में ऐसामाहौल बनता है, जहाँ छात्र सहयोगी और संकल्पित होकर श्रेष्ठ हासिल करने केलिए तत्पर हो जाते हैं।
शिक्षक ‘वसुपति’हों!
वैदिक दृष्टिकोण- वसुपति होना अर्थात् धन व ऐश्वर्य का अधिपति होना।ज्ञान-रूपी धन और ऐश्वर्य का विद्वान होना शिक्षकों का तीसरा अत्यंत आवश्यक गुणहै। अध्यापक जिस भी विषय को पढ़ाता हो, उसमें उसकी दक्षता हो। उसे अपने छात्रकी शैक्षणिक आवश्यकताओं को पूरा करने में पूर्णतः सक्षम होना चाहिए। विद्यार्थियोंको सही और उपयुक्त तथ्यों का चुनाव कराने तथा प्राप्त जानकारी का सही प्रयोगसमझाने का दायित्व भी वसुपति होने का एक पहलू है। विषय में दक्षता होने काएक मतलब यह भी है कि शिक्षक का ज्ञान-अर्जन के प्रति रुझान निरन्तर बना रहे।अध्यापक को अपने विषय में हो रहे नवीन आविष्कारों, तकनीकों एवं गतिविधियों सेअवगत रहना चाहिए- जिससे शिक्षक की अध्यापन शैली बेहतर हो सके।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य- ऑस्ट्रेलिया की ‘मोनाश यूनिवर्सिटी’ के प्रोफेसर ‘डॉ. डेविडज़ींजिएर’का भी यही मानना है। अपने शोध के आधार पर वे कहते हैं कि टीचरकी अपने विषय में महारत होना उसको प्रभावी और उपयोगी बनाताहै। श्रेष्ठ अध्यापक स्वयं को अपने विषय में हमेशा ‘अपडेटिड’रखते हैं। साथ ही, अच्छे शिक्षकों को इस बात का सही मूल्यांकनहोता है कि उनके विषय में छात्रों द्वारा सीखने का क्रम किस प्रकारबढ़ता है। मतलब कि पहले किस टॉपिक को पढ़ाना है और उसकेबाद में किसको, यह श्रेष्ठ शिक्षकों को भली-भाँति ज्ञात होता है।यह भी कि विषय के किस अध्याय को छात्र अक्सर ठीक से नहींसमझ पाते हैं।
शिक्षक ‘रमणीय और रोचक’ढंग से पढ़ायें!
वैदिक दृष्टिकोण- शिक्षक का चौथा परम-गुण उसके अध्यापनकौशल से सम्बन्ध रखता है। अध्यापक के पढ़ाने का ढंग ‘रमणीयऔर रोचक’हो। ताकि कक्षा में शिक्षक जो सिखाएँ, वह सहजता सेछात्रों को हृदयस्थ हो जाए और विषय को रटने का सवाल ही नउठे। पढ़ाने की शैली इतनी प्रयोगात्मक, रचनात्मक और व्यावहारिकहो किविद्यार्थियों को विषय को समझने में तो आसानी हो ही; साथही उसे जीवन में प्रयोग करने की प्रेरणा भी हो। एक ऐसी शैलीजिससे शिक्षा बोझ न बनकर छात्रों के मन को कुछ नया करने कीप्रेरणा से ओतप्रोत कर दे। जहाँविद्यार्थी भी अपने आपको शिक्षणप्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग समझें और वे हर दिन कुछ नयासीखने के लिए तत्पर हों।