New Delhi : घूमते कालचक्र के साथ असंख्य युद्धसंग्राम घटे। कहीं राज्य की अभिलाषाथी,तो कहीं कोई और कामना। परन्तुइतिहास मात्र उन संग्रामों को पाकर सौभाग्यका अनुभव कर पाया,जिनका उद्देश्य धर्म-संस्थापना था। ऐसा ही एक अद्वितीय संग्रामहुआ था, त्रेतायुग में। प्रभु श्री राम व असुरराजरावण के बीच। यह युद्ध वास्तव में अद्भुत था।इसमें एक ओर थे- प्रशिक्षित,हृदयविहीनयोद्धा,अस्त्र-शस्त्र से लैस,छल-बल कोलिए हुए। वहींदूसरी ओर थीं,वन प्रजातियाँ जिन्हें युद्ध काकुछ खास अभ्यास-अनुभव नहीं था। अस्त्र वशस्त्र भी उनके पास अधिक नहीं थे। मात्रश्री राम की विश्वास नैया पर अनंत सागरको पार कर,उत्साह रूपी शस्त्र ले,वह छोटीसी सेना विशाल-सेना के सामने खड़ी हो गईथी।
फिर हुआ था एक ऐसा संग्राम,जिसनेमानव बुद्धि के तर्कों को निरस्त्र कर दिया।क्योंकि प्रभु राम की अगुआई में जीत गई थी वानर-सेना। हार गएथे धुरंधर असुर! इस विजयश्री को आज युगों बाद भी हम‘विजयदशमी’के रूप में मनाते हैं। वह प्रतीक रूप में अंत है-रावणत्व का,असुरीय अवगुणों का। विजय है,अधर्म पर धर्म की।इसलिए आज भी विजयदशमी पर रावण,कुम्भकरण और मेघनाथके पुतले जलाए जाते हैं। कुम्भकरण रावण का भाई था औरमेघनाथ रावण का पुत्र। दोनों ने ही युद्ध में अहं भूमिका निभाई। परमेघनाथ रावण का गर्व था। उसका बाहुबल था। मेघनाथ ने रावण के सभीअवगुण उससे विरासत में पाए थे। उसमें से मुख्य था- काम।गोस्वामी तुलसीदास जी ने तो मेघनाथ के विषय में विनय पत्रिका में कहा-मेघनाथ मूर्तिमान ‘काम’ है।
जब रावण के बड़े-बड़े योद्धा,सेनानायक मृत्यु द्वारा ग्रसलिए गए,तब रावण की ओर से युद्ध करने के लिए रणभूमि मेंउतरा- मेघनाथ। उसने युद्धभूमि में आते ही ऐसे वाणों का संधानकिया कि सारी वानर सेना व्याकुल हो गई। तब श्री लक्ष्मणमेघनाथ से युद्ध करने के लिए उसके समक्ष आए। जहाँ गोस्वामीजी ने मेघनाथ को ‘काम’कहा,वहीं वह लक्ष्मण जी के लिएकहते हैं-लक्ष्मण जी ‘वैराग्य’स्वरूप हैं।
मेघनाथ व लक्ष्मणजी के बीच युद्ध आरंभ हुआ। परन्तु विजय किसकी होगी,यहकुछ कहा नहीं जा सकता था। काफी देर युद्ध चलता रहा। मेघनाथने छल-बल का प्रयोग किया और फिर एकाएक वीरघातिनीशक्ति द्वारा लक्ष्मण जी को मूर्छित कर दिया। पर विचारणीय तथ्य यह है कि श्रीराम सर्वशक्तिमान हैं।अब तक उनकी कृपा से युद्ध में कोई प्रमुख योद्धा क्षत-विक्षत नहींहुआ। वे चाहते तो अपने अनुज लखन को भी इस मूर्छा से बचासकते थे। फिर उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया?उन्होंने क्योंकर‘वैराग्य’ को ‘काम’ द्वारा मूर्छित होने दिया?इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है। वह यह कि प्रभुअपने आदर्शों के विपरीत नहीं जाते। लखन जी जब युद्ध के लिएगए,तो उनसे एक भूल हो गई- लक्ष्मण जी प्रभु राम से आज्ञा मांग कर,क्रोधपूर्वक चले।विचार करें,लखन जी ने आज्ञा तो मांगी थी, परन्तु प्रभुने आज्ञा प्रदान नहीं की थी। और क्रोधित होकर चलने सेअभिप्राय?क्रोध वही व्यक्ति करता है,जो अहंकारी होता है। और यह तोअटल सत्य है कि जब साधक बिना गुरु-आज्ञा के और अहंकार सेपूर्ण हो अपने ‘वैराग्य’ द्वारा ‘काम’ को पराजित करने का प्रयासकरता है,तो ‘काम’ द्वारा खुद ही मूर्छित हो जाता है।
जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन– जब श्री रघुवर जी नेआज्ञा दी,तब लखन जी उस निशाचर के वध के लिए चले।पहलेपहल मेघनाथ द्वारा रचित यज्ञ का विध्वंस किया। फिर प्रभुराम का स्मरण कर बाण छोड़ा,जो सीधा मेघनाथ के हृदय केबीच लगा तथा वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।लक्ष्मण जी की मेघनाथ पर विजय तात्त्विक दृष्टि से‘वैराग्य’ की ‘काम’ पर विजय है। ‘वैराग्य’ ही ‘काम’ को समाप्तकरने का माध्यम है। परन्तु यह भी अटल नियम है कि वैराग्य कोअहंकार विहीन होना चाहिए। गुरु-आज्ञा के आधार को लिए होनाचाहिए। इसीलिए श्री रामकृष्ण परमहंस जी अधिकतर अपनेशिष्यों को वैराग्य के विषय में समझाते हुए कहा करते थे- ‘वैराग्यका अर्थ सिर्फ संसार से विराग नहीं है। ईश्वर पर अनुराग औरसंसार से विराग- दोनों है।’इसलिए आइए,हम सब साधक भी इस बारविजयदशमी को सार्थक करने के लिए ‘काम’ रूपी मेघनाथ केसामने‘वैराग्य’ रूपी श्री लखन जी को अहंहीन व गुरु-आज्ञाअनुरूप कर खड़ा करें।दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।