मेले में 1047 स्टॉल तो आवंटित हो चुके हैं, इसके अलावा दर्जनों और भी मेला प्रांगण में बने सचिवालय में स्टॉल आवंटन के लिए आवेदन दे चुके हैं। जिनको स्टॉल आवंटित हो चुके हैं, उनमें मुख्य रूप से हस्तशिल्पियों के अलावा बड़ी संख्या में कारखाने, लघु कुटीर उद्योग, खानपान, मनोरंजन आदि के स्टॉल भी हैं। यह सभी 17 दिन तक चलने वाले मेले में करोड़ों रुपये का व्यापार करेंगे। यह सारा लेनदेन बिना बिल पर्चे के हो रहा है। अब जब कोई बिल ही नहीं कट रहा, तो फिर टैक्स कैसा। यह भी नहीं कि जीएसटी न होने का फायदा मेले में खरीदारी करने वाले दर्शकों को मिल रहा हो, उसे तो स्टॉल संचालक व हस्तशिल्पी के मुंह-मांगे दाम चुकाने पड़ रहे हैं। वैसे ओडीसा से आए कुछ हस्तशिल्पियों ने जीएसटी के साथ माल बेचने की पहल भी की है, पर ऐसे गिनती के ही हैं।

अब अगर हस्तशिल्पियों को बढ़ावा देने के ¨बदु को एक तरफ रख दिया जाए, तो बाकी फूड जोन में दर्जनों खानपान संचालक व अन्य भी मनमाने दाम वसूल रहे हैं और टैक्स के रूप में सरकार को फूटी कौड़ी भी नहीं मिल रही।

जीएसटी में यह प्रावधान है कि बिल काटने पर जीएसटी के रूप में मिलने वाला राजस्व का 50 फीसद राज्य सरकार के खाते में जाता है, जबकि 50 फीसद केंद्र सरकार के खजाने में। इस बारे में जब सूरजकुंड मेला प्राधिकरण के नोडल अधिकारी राजेश जून से संपर्क साधा गया, तो उन्होंने कहा कि सीएसआर(कारपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी) के तहत विगत वर्षों में मेले में अपनी कलाओं का प्रदर्शन करने वाले व उत्पाद बेचने वाले शिल्पियों के लिए टैक्स अदायगी में छूट मिलती रही है। इस बार चूंकि जीएसटी लागू हुआ है, तो मेला प्राधिकरण भी इसको लेकर सजग था। प्रदेश के अतिरिक्त मुख्य सचिव की ओर से इस बाबत राज्य सरकार के आबकारी एवं कराधान विभाग तथा जीएसटी काउंसिल को लिखा गया था। आबकारी एवं कराधान विभाग ने तो इस पर अपनी सहमति दे दी थी, जबकि जीएसटी काउंसिल के पास यह मामला विचाराधीन है। जो भी निर्देश आएंगे, उसी अनुसार प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाएगा।