गुरू जीव को इस संसार सागर से पार उतारने आते हैं : साध्वी कालिंदी भारती

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New Delhi News, 25 May 2019 : दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से रामलीला मैदान, पुलिस स्टेशन के सामने, प्रह्लादपुर, नई दिल्ली में सात दिवसीय श्रीमद् भागवत महापुराण कथा ज्ञान यज्ञ का आयोजन किया जा रहा है। कथा के तृतीय दिवस में महामहिमामय सर्व श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या सुश्री कालिंदी भारती जी ने तृतीय स्कंध का बहुत ही भव्य प्रस्तुतीकरण किया। उन्होंने बताया कि भगवान भाव के भूखे हैं। जो भी उन को भाव से पुकारता है तो वह पहुँच जाते हैं। समाज के कुछ प्रबुद्ध लोगों का कहना है कि भगवान होते हुए भी कृष्ण ने प्रलयकारी महाभारत के युद्ध को रोका क्यों नहीं। भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के प्रलयकारी युद्ध केा रोकने का हरसंभव प्रयत्न किया। युद्ध से पूर्व वह शांतिदूत बनकर गए। दुर्योधन जैसे दुराचारी को भी विनम्रतापूर्वक समझाया, आधे राज्य की जगह मात्र पांच गांवों में समझौता करने तक को तैयार हो गए। तब भी भगवान ने उसे भय दिखाया। धनहानि, जनहानि, यहां तक की सर्वनाश की खरी चेतावनी भी दे डाली। तब भी वह नहीं माना, तो विराट रूप दिखाया। साम-दाम-दंड-भेद सब नीतियों से उस दुर्बुद्धि को समझाने की सन्मार्ग दिखाने की भरपूर कोशिश की। यह सब युद्ध रोकने के प्रयास ही तो थे। अब परमात्मा अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा किसी की कर्म करने की स्वतंत्रता को छीनता नहीं। उसने हर निर्णय लेने व कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्राता दी है। वे तो केवल सही राह ही दिखता है। सो श्री कृष्ण ने किया। । इस तथ्य को हम एक रोगी के उदाहरण के माध्यम से समझते हैं। एक रोगी जिसकी देह का एक पूरा अंग गल-सड़ चुका है। साथ ही बाकी शरीर में से विष का प्रसार कर रहा है। अब एक कुशल चिकित्सक, वैद्य सर्वप्रथम तो इस अंग का उपचार करने का यथासंभव प्रयास करता है। पर जब किसी भी चिकित्सा पद्धति या औषधि से यह अंग स्वस्थ नहीं होता है तो अंततः हारकर उसे एक कठोर निर्णय लेना ही पड़ता है। उस विषाक्त अंग को विलग देने का। आखिर शेष शरीर की सुरक्षा व स्वास्थ्य का जो प्रश्न है। अब आप ही बताइए कि क्या चिकित्सक द्वारा लिया गया निर्णय अनुचित है। कौरव भी तत्कालीन समाज का ऐसा ही विषाक्त अंग बन चुका था। लाक्षागृह की भीषण अग्नि में अपने भाइयों को झोंक देने में जिन्हें कोई संकोच नहीं, भरी सभा में माता समान भाभी को निर्वस्त्र करने का प्रयास करते हुए उनके हाथ नहीं कांपते, जुऐ की कुचालें चलकर छलपूर्वक जो अपने भाइयों को सारा राज-पाट हड़प ले, उन्हें तेरह वर्ष के घोर वनवास में धकेल दे, इतना ही नहीं वनवास पूर्ण होने के पश्चात् भी उनका साम्राज्य न लौटाएं, मात्र पांच गांवो में भी समझौता करने को तैयार न हो ऐसे धन-लोलुप व दुराचारी तत्त्व समाज के असाध्य नासूर नहीं तो और क्या है। इसलिए परम चिकित्सक श्री कृष्ण को संपूर्ण समाज के कल्याण हेतु अंततः उन्हें समूल नष्ट करने के लिए बद्ध किया।
चर्तुथ स्कंध का व्याख्यान करते हुए साध्वी जी ने बताया कि ध्रुव की बालक अवस्था है लेकिन वो प्रभु से मिलने की उत्कंठा लिए वन में जाकर तपस्या करनी शुरु कर देता है। जहाँ पर उसकी भेंट नारद जी से होती है जो उसको ब्रह्मज्ञान प्रदान कर घट के भीतर ही ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन करवा देते हैं। आज मानव भी प्रभु से मिलने के लिए तत्पर है लेकिन उसके पास प्रभु प्राप्ति का कोई भी साधन नहीं है। हमारे समस्त वेद-शास्त्रों व धार्मिक ग्रन्थों में यही लिखा गया है कि ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए केवल गुरु की शरणागति होना पड़ता है। गुरु ही शिष्य के अज्ञान तिमिर को दूर कर उसमें ज्ञान रूपी प्रकाश को उजागर कर देता हैं। उन्होंने कहा कि जब भी एक जीव परमात्मा की खोज में निकला है तो वह सीधे परमात्मा को प्रस्सन नहीं कर पाया। गुरू ही है जो जीव और परमात्मा के मध्य एक सेतु का कार्य करता है। परमात्मा जो अमृत का सागर है किंतु मानव उस अमृतपान से सदा वंचित रह जाता है। पिपासु मनुष्य तक मेघ बनकर जो अमृत की धारा पहुंचाता है वह सद्गुरू है। सद्गुरू से संबंध हुए बिना ज्ञान नहीं हो सकता। गुरू इस संसार सागर से पार उतारने वाले हैं और उनका दिया हुआ ज्ञान नौका के समान बताया गया है। मनुष्य उस ज्ञान को पाकर भवसागर से पार और कृतकृत्य हो जाता है।

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