Faridabad News : 32वें अंतरराष्ट्रीय सूरजकुंड हस्तशिल्प मेले में छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक वैभव को ढोकरा शिल्पकला के रूप में देख सकते हैं। आदिवासी संस्कृति से जुड़ी इस कला में दो तरह के शिल्पों का निर्माण होता है। देवी-देवताओं के शिल्प जैसे कुछ कृतियों में गणेश जी, राधा-कृष्ण हैं तो वहीं दूसरी तरह की कृतियों में मछली, कछुआ, मोर, शेर तथा कैंडल स्टैंड बनाए जाते हैं। आधुनिकता के इस दौर में घर की सजावट के लिए विभिन्न सामान का निर्माण शिल्पियों की ओर से किया जा रहा है। यह दस्तकारों की एक प्राचीन कला है। कृतियों को बनाने में तांबा तथा ब्रॉस के मिश्रण की ढलाई करके कृतियों को आकर्षक रूप दिया जाता है।
स्टाल नंबर 757 के संचालक रबी कुटीरका कहते हैं कि वह गांव बाराखंभा, कंदमाल, ओडिसा से यहां आए हैं। उनके स्टाल पर सौ रुपये से लेकर 2 हजार रुपये तक की कृतियां हैं। रबी कुटीरका कहते हैं कि कंदमाल गांव में समूह बने हुए हैं, जो मिलकर कृतियां बनाते हैं और यह कृतियां देश-विदेश में पसंद की जाती हैं।
ऐसे बनती हैं कलाकृतियां
धातु से बनाई जाने वाली कलाकृति को पहले मोम से आकार दिया जाता है। यानी पहले ढांचा तैयार किया जाता है। इसके बाद ही कृति तैयार होती है। मोम की खाली हुई जगह को तरल धातु से भर दिया जाता है। यह तरल धातु भीतरी हिस्से में जाकर वही आकृति ले लेती है, जो मोम की है। धातु की तैयार कृति को अंतिम फिनि¨शग देकर आकर्षक बना दिया जाता है।
आज भी जीवंत है साढ़े चार हजार वर्ष पुरानी कला
छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में वर्षों पूर्व की तरह आज भी धातु ढलाई का कार्य हो रहा है। यहां कलाकार आकर्षक कृतियां बनाते हैं। इस परंपरागत कला को आदिवासी समाज ने जीवित रखा हुआ है। जो शिल्पी अपने घर से दूर जाकर मार्के¨टग नहीं कर पाते हैं। उनकी कृतियों की मार्के¨टग के लिए अब कई कंपनियां भी आगे आई हैं।
कलाकृतियों की हो रही मार्केटिंग
जनजाति मंत्रालय की ओर से सूरजकुंड मेले में ट्राइबस इंडिया की टीम के कई स्टाल हैं। इनमें ढोकरा कला की कृतियां भी मौजूद हैं। स्टाल नंबर 703 पर ट्राइबस इंडिया के उप प्रबंधक अभिलाष दीक्षित बताते हैं कि बहुत से हस्तशिल्पी की कृतियां उनकी कंपनी की ओर से बेची जाती है। कई शिल्पियों का ज्यादा समय कृतियां बनाने में चला जाता है, वह खुद मार्के¨टग नहीं करना चाहते। ऐसे में उन्हें बेहतर दाम दे दिया जाता है।