आज का युवा नशे की दलदल में धस चुका हैं : साध्वी गरिमा भारती 

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New Delhi News, 20 feb 2019 :दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा कुम्भ, प्रयागराज में सात दिवसीय श्री शिवकथा में संस्थान के संचालक एवं संस्थापक सर्व श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्य गरिमा भारती ने शिव विवाह के शेष प्रसंग को भक्तों के समक्ष रखा। भोले नाथ के श्रृंगार के बारे में बताते हुए भारती जी ने बताया कि भगवान शिव ने जटाएं धारण की जो कि इंसान की उलझनें एवं झंझटों में लिप्त बिखरे हुए मन की प्रतीक हैं। मन चंचल है पर उसे ध्यान के द्वारा ही एकाग्र किया जा सकता है। भगवान के हाथों में त्रिशूल है जो इंसान के तीन शूलों की ओर इंगित करता है। यह तीन ताप हैं आदिदैविक, आदिभौतिक और आध्यात्मिक। उन्होंने अपने तन के ऊपर भस्म का लेपन किया जिसके द्वारा उन्होंने शरीर की नश्वरता की ओर इशारा किया है। जब देवतागण उन्हें अपना रूप बदलने के लिए कहते हैं तो भगवान शिव कहते हैं कि-“भस्मान्तम् शरीरम्”। उनके ललाट में चन्द्र सोह रहा है। जो प्रकाश का प्रतीक है। उनके हाथ में डमरू है जो कि अनहद नाद का प्रतीक है। त्रिशूल तीनों तापों को काटने वाले प्रभु के नाम का प्रतीक है। उनकी जटाओं में बहती गंगा अमृत रस का प्रतीक है।
लोगों के दृष्टिकोण को समक्ष रखते हुए सुश्री भारती जी ने कहा कि आज कुछ लोग कहते हैं कि भगवान शिव भांग पीते थे, इसलिए हम भी भांग पीते हैं। भगवान शिव ने किसी बाहरी नशे को ग्रहण नहीं किया हमारे किसी भी धर्म ग्रंथ में इस बात का प्रमाण नहीं मिलता है। चाहे वह शिव पुराण ही क्यों न हो। वे तो हमेशा प्रभु नाम के नशे में मस्त रहते थे। इस बात को लेकर नशेड़ी लोगों ने बहाना बना लिया और भांग पीने लग गए। भारती जी ने बताया कि आज की युवा पीढ़ी, जिसे देश का मेरूदंड कहा जाता है। आज वही युवा नशे कि दलदल में इस कदर धस चुके हैं कि देश- समाज तो क्या अपना भार नहीं उठा पा रहे। बाहरी सांसारिक नशे का प्रभाव तो कुछ समय के लिए ही होता है परन्तु जो प्रभु परमात्मा के नाम का नशा है उसका खुमार कभी कम नहीं होता। इसलिए आज नशे के प्रभाव से मानव को बचाने का एक ही उपाय है। ईश्वर के नाम का नशा अर्थात ईश्वरीय दर्शन ही है।
सुश्री भारती जी ने बताया कि जब हिमाचल वासी भगवान शिव का विकट रूप देख कर भयभीत हो जाते हैं तो तब नारद वहाँ जाकर निवासियों को शिव और पार्वती की कथा सुनाते हैं कि पार्वती तो शिव की जन्मों से ही अर्धांगनी है। तत्त्पश्चात वे हिमाचल वासियों को ज्ञान प्रदान करते हैं। तब हिमालय और मैना,  पार्वती का हाथ शिव को सौंपते हैं। इस प्रकार भगवान शिव और पार्वती का विवाह सम्पन्न होता है। मानव जीवन के कल्याण के विषय के बारे में व्याख्यान करते हुए उन्होंने बताया कि संत महापुरुष के द्वारा ही इंसान के जीवन का कल्याण संभव है अन्यथा और कोई भी मार्ग नहीं है। इंसान अपने जीवन के प्रति सजग नहीं है। वह इस बात से लगभग अनभिज्ञ ही हो चुका है कि उसके जीवन का केवल मात्र एक ही उद्देश्य है प्रभु प्राप्ति। लेकिन वह इन सब बातों से अत्यधिक दूर जा चुका है। इंसान अपने जीवन को केवल खाने पीने और मौज मस्ती करने के साधन के रूप में ही स्वीकार कर चुका है। जबकि हमारे समस्त धार्मिक ग्रंथों में इस मानव तन को दुर्लभ कहा गया। यह तन मिला है तो मात्र ईश्वर की प्राप्ति करने के लिए। मात्र पूर्ण संत ही इंसान के भीतर उस परमात्मा के साक्षात्कार दर्शन करवा सकते हैं।
 जो प्रकाश का प्रतीक है। त्रिशुल तीनों तापों को काटने वाले प्रभु के नाम का प्रतीक है। शिव की संस्कृति बहुत महान है जिसके कारण उनके शृंगार अपने भीतर अद्भुत रहस्यों को धरण किए हुए हैं। इस कथा समागम में शहर के गणमान्य विशिष्ट व्यक्तियों ने सम्मिलित होकर आनन्द उठाया व कथा का समापन प्रभु की विधिवत आरती के साथ हुआ।

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