ब्रह्मज्ञान ही वर्तमान अधीर विश्व के रूपांतरण एवं एकीकरण का एकमात्र सटीक समाधान : आशुतोष महाराज

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New Delhi News, 19 Sep 2019 : मानव समुदाय के लिए अंतरिक्ष मेंशान्ति हो, पृथ्वी पर शान्ति हो…….सर्वत्र शान्ति हो|’युगों पूर्व यही प्रार्थना हमारे वैदिक ऋषिगणों केउदार हृदयों से, समस्त विश्व के कल्याण के लिएप्रस्फुटित हुई थी। समय बीता, युग बदले, परन्तुशांति की यह अभिलाषा, एक अपरिवर्तनीय पुकारबन मानव-मन से सदा ही झंकृत होती रही।वर्तमान परिदृश्य में भय, वैमनस्य और आतंक केबादल सघन होतजा रहे हैं। हमारी हिंसात्मकप्रवृत्तियाँ मानो विश्व में विध्वंसक तांडव कोउत्तेजित कर रही हैं। समाचार पत्रों की रक्त रंजितसुर्खियाँ; युद्ध बिगुलों की गूंज में द्रवित मानवताका रुदन- इन सभी अमानवीय परिस्थितियों सेजूझता मानव समाज, असहाय अवस्था में अन्यक्या गुहार कर सकता है? यही कि- ‘हमें शांतिचाहिए! कहीं, कुछ तो ऐसा घटित हो जो इसविश्वव्यापी, भयानकदावानल में शीतल फुहारों केरूप में बरस उठे और अशांत विश्व शांत होजाए।’

परन्तु इस सर्वव्यापी अशांति का मूल कारणक्या है? गहन एवं जीवन के दर्दनाकअनुभव हमें भली भांति यह समझा चुके हैं किअशांति का मूल कारण बिखराव, टूटन एवंविषमता है। अतः यदि हम अपनी वसुधा पर शांतिएवं सौहार्द के स्वप्न को साकार करना चाहते हैं तोसर्वप्रथम हमें विश्व में एकत्व स्थापित करना होगा।बिखरी हुई मानव मणियों को एक सार्वभौमिक सूत्रमें पिरोना होगा। एकता स्थापन के प्रयासों की श्रृंखला में एककड़ी रही है- भौतिक व ज़मीनी स्तर पर, राष्ट्रोंकी सीमाओं को समाप्त कर देना। विश्व को एकही राष्ट्र के रूप में परिणत कर देना। इस प्रयास केसमर्थक लोगों की मनोवैज्ञानिकविचारधारा यहरही है कि यदि संपूर्ण विश्व एक ही राष्ट्र होगा तोफिर कौन किससे लड़ेगा? तब शांति स्वतः हीसुनिश्चित हो जाएगी। परन्तु यदि हम इतिहास कीओर दृष्टिपात करें तो देखेंगे कि अनेकों बार विश्वके पृथक भागों को एकत्र करने की चेष्टा की गई।विध्वंसक युद्धों द्वारा ज़मीन पर खिंची रेखाओं को तो मिटा दिया गया लेकिन विस्तृत सीमाओं में जबरन एकत्रकिएगए निवासी!! उनका क्याि हुआ? उनकेअन्तर्मन में खिंची विद्वेष, वैमनस्य की लकीरें,परतंत्रता का भाव अधिकाधिक गहराता चला गया।

इन कटु अनुभवों के उपरान्त यह तो स्पष्ट होगया कि कम से कम ऐसे पार्थिव, यानी ज़मीनीस्तर पर किया गया विश्व एकीकरण कदापि विश्वशांति की स्थापना नहीं कर सकता। द्वितीयविश्व युद्ध के उपरान्त अब प्रयास आरंभ हुएविश्व को संवैधानिक स्तर पर एक करने के।विभिन्न राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने मिलकर ‘संयुक्तराष्ट्र‌ संघ’नामक संस्था की स्थापना की। इससंगठन का आधार अथवा मूलमंत्र है कि सम्पूर्णविश्व एक ‘Global Family’ (संयुक्त परिवार) है। परन्तु यह मंत्र भी संवैधानिक पत्रों में मात्रऔपचारिक रूप से ही दर्ज़ हुआ नज़र आता है।संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलनों में सर्व सम्मति से लिएगए निर्णयों को ताक पर रखकर मनमानी करते हुए सदस्य राष्ट्र; सीमाओं पर गूँजते तोपों औरमिसाइलों के कर्णभेदी विस्फोट- निःसंकोच इसकाउपहास करते दिखाई देते हैं। नित नए रूप, नए क्षेत्रमें फलती-फूलती आतंकवाद की विष-बेल; तनावकी कलम से बनता-बिगड़ता विश्व का विकृतस्वरूप-सभी इस अंतर्राष्ट्रीय नैतिक मुहावरे केखोखलेपन का साक्षात्‌ प्रमाण हैं।

विश्व-एकीकरण के स्वप्न को यथार्थभाव में स्थापित करने के लिए सामाजिक तथा आर्थिकस्तर पर भी प्रयत्न किए गए। इस प्रयास के प्रणेताथे कार्लमार्क्स। इन्होंने मानव समाज को‘कम्यूनिज़्म’अर्थात्‌ साम्यवाद का सिद्धान्त दिया।साम्यवाद का आधार भूत सूत्र है कि-‘क्षमताअनुसार कार्य एवं आवश्यकतानुसार आय।’साम्यवादी राष्ट्रों केनागरिकों का जीवन मात्र शासन के आदेशों वनिर्देशों के दायरों में सिमट कर रह गया। निर्धारितआय के कारण उनके भीतर अपनी प्रतिभा,प्रवीणता को विकसित करने का जज़्बा ही जातारहा। उनकी अंतर्निहित सृजनात्मकता एवंरचनात्मकता के संवर्धित होने के सभी द्वार बंद करदिए गए। मूक-बधिर बनाने वाले ऐसे शासन केविरुद्ध नागरिकों की दमित भावनाओं ने अंततःविद्रोह कर दिया। अतःसाम्यवाद में भी समता का अभावरहा।

एकता प्रयासों के सूत्र में मानव कोधर्म के धरातल पर एकत्व में पिरोने की चेष्टा भी की गई।इस कार्य का बीड़ा उठाने वाली थीं अनेकों धार्मिकसंस्थाएँ। इनका मानना था कि ईश्वर के संबंध मेंहमारी विचारधाराओं, आंतरिक संवेदनाओं वआस्थाओं को समतल धरातल पर लाकर खड़ाकरना चाहिए। इससे स्वतः ही हमारे अंतस् मेंअपने सहमानवों के प्रति भ्रातृत्व और मैत्री के भावजागृत हो जाएँगे। इन विचारों को मूर्तरूपदेने वाले ही स्वयमेव धर्म के वास्तविक वसार्वभौमिक स्वरूप से अनभिज्ञ थे। इसलिए उन्होंनेअपनी मान्यताओं पर आधारित धर्म को सर्वोत्कृष्टतथा अन्य धर्मों को निकृष्ट सिद्ध करने का प्रयत्नकिया। इन तथाकथित धार्मिक संस्थाओं नेभिन्न-भिन्न देशों में जाकर, लोगों का धर्म परिवर्तनकरके स्वधर्म में सम्मिलित करने का जबरन प्रयासकिया। परन्तु एकत्व स्थापित करने के इनआधारहीन प्रयासों की कलई तभी खुल जाती है, जब एक ही धर्म को धारण किए हुए दो राष्ट्रसमरांगण में परस्पर विरोधी शिविरों में खड़े नज़रआते हैं। धार्मिक विचारधाराएँ तो एक होगईं पर अहं की दीवारें ध्वस्त नहीं हो पाई।स्पष्टतः उपरोक्त सभी सूत्र शांति को समग्रतासे स्थापित करने में लगभग विफल ही सिद्ध हुएहैं। इन सभी सफल या अर्धसफल प्रयासों केबीच ‘विश्व शांति’का लक्ष्य, आज भी इसआधुनिक युग को व्यंगपूर्ण चुनौती देता सा प्रतीतहोता है। अभाव कहाँ रह गया? इस विश्वव्यापीसमस्या का समाधान क्या है?

इस समस्या का अभेद्य निराकरण हमें मिलताहै महापुरुषों द्वारा रचित शास्त्र ग्रंथों एवं सनातनअपौरुषेय वेदों में। शास्त्रानुसार एकीकरण का आधार बाह्य अथवापार्थिव कदापि नहीं हो सकता। रंग-रूप, भाषा-भूषा, विचारों की भिन्नता केसाये तले अभिन्न

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