New Delhi News, 23 Jan 2020 : पुरातन काल में, विश्व के दृश्य-पटल पर यदि किसी देश की संस्कृति ने पूर्णशुभ्रता एवं दिव्यता को प्राप्त किया तो वह था आर्यावर्त – भारत। ‘भा’अर्थात् प्रकाश, ‘रत’ अर्थात् अंतर्लीन। वह देश जो प्रकाश सिंधु में निमग्नरहता है, वही भारत है। संस्कृति के पुण्य प्रवाह में भारत ने ऐसे युग कोदेखा व जिया, जहाँ उसने यदि विष को स्वीकार किया तो उसे भी अमृत कर दिया; जिसका भी आलिंगन किया, उसे पारस बना दिया। यज्ञधूम्र की पवित्र सुगंध सेपरिपूर्ण इसका आकाश; ऋषियों-महर्षियों द्वारा उच्चारित मंत्रों से गुंजितवातावरण, प्रत्येक निवासी में देवत्व की झलक – इस धरा पर साक्षात् स्वर्गका अनुभव देते थे। इस भूमि के पावन स्पर्श से पारस बने विवेकानंद जी काकहना था कि, “हमें गर्व है कि हम अनंत गौरव की स्वामिनी इस भारतीय संस्कृतिके वंशज हैं, जिसने सदैव दम तोड़ती मानव जाति को अनुप्राणित किया है।”भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है-“या प्रथमा संस्कृतिविश्ववारा”। जहाँ समय की प्रचण्ड धराओं में यूनान, रोम, सीरीया, बेबीलोन आदिसंस्कृतियाँ बिखरकर अपना अस्तित्व खो बैठीं, वहीं भारतीय संस्कृति ही ऐसीएकमात्र संस्कृति है जो इन प्रवाहों के समक्ष अडिग चट्टान के समान खड़ीरही। क्योंकि इस संस्कृति के आधारभूत स्तम्भ दिव्य-विभूतियाँ थी, ऐसे ऋषिगणथे जिन्होंने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आधार-परमात्मा के गूढ़तम ज्ञान को प्रकटकर लिया था। ब्रह्मर्षियों की छत्र छाया में मनु-स्मृति का यह कथन भी सजीवहो गया था – “एतद् देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।“
अर्थात्-सम्पूर्ण विश्व के समस्त भागों से ज्ञान पिपासु मानव ज्ञान की खोजमें इस आर्यावर्त में आएंगे तथा देश के सुसंस्कृत साहित्य एवं संस्कृति सेनैतिकता और चरित्र का पाठ सीखेंगे। उस काल में अनेकानेक विदेशियों केजिज्ञासु कदम बरबस ही इस देवसंस्कृति की ओर बढ़ आए। यहाँ उन्हें अपनी समस्तआध्यात्मिक जिज्ञासाओं के समाधान मिले। अतः उन्होंने भारत को ज्ञान का असीमस्रोत घोषित कर दिया। दार्शनिक शोपेनहॉवर का कहना था कि -विश्व में यदि कभीकोई सर्वाधक प्रभावशाली व सर्वव्यापी सांस्कृतिक क्रांति आई है, तो वहकेवल उपनिषदों की भूमि-भारत से। जर्मनी के मैक्स मूलर भी जब इस पुण्य भूमिके दिव्यत्व से परिचित हुए तो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘India – What can it teach us’में लिखा था कि “यदि मुझसे पूछा जाए कि आकाश मंडल के नीचे कौन सीवह भूमि है, जहाँ मानव ने अपने हृदय में अवस्थित ईश्वरीय गुणों का पूर्णविकास किया, तो मेरी उंगली भारत की ओर उठेगी। और यदि मैं स्वयं से पूछूँ किवह कौन सा साहित्य है जिससे हम यूरोपवासी, जो अब तक केवल ग्रीक, रोमन तथायहूदी विचारों में पलते आए हैं, प्रेरणा ले सकते हैं, जिससे हमारा आंतरिकजीवन पूर्णत्व की ओर बढ़े, व्यापक बने, सच्चे अर्थों में मानवीय बने तो मेरीउंगली फिर भारत की ओर उठेगी।” ग्रीस के राजदूत मैगस्थनीज भी जबचन्द्रगुप्त के राज्यकाल में भारत आए तो वह यहाँ की अस्तेय पूर्ण संस्कृतिसे अत्यंत प्रभावित हुए। यहाँ से लौटने पर उन्होंने कहा था कि “रात्रि केसमय भी भारत में कोई अपने मकान में ताला नहीं लगाता। मकान के भीतर केवलचाँद की सत्यनिष्ठ किरणें ही प्रवेश करती है, अन्य कोई संदिग्ध व्यक्तिनहीं।” उपनिषद् में भारतीय सम्राट अश्वपति कैकेय भी कहते हैं- ‘न मे स्तेनोजनपदे’ अर्थात् मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है। ऐसा था भारत का निष्कलंकस्वरूप और उसकी अनुकरणीय प्रसिद्धि इतना ही नहीं ‘सोने की चिड़िया’ कहलानेवाले भारत के व्यापारियों तक के ईमान की सौगंध खाई जाती थी। उस काल मेंदूरवर्ती देशों के साथ भारत के उत्तम व्यापारिक संबंध थे। इंग्लैंड में भीभारतीय सामग्री विशेष रूप से निर्यात की जाती थी। वहाँ के सौदागरों ने अपनेयहाँ व्यापारी कोठियाँ बनाई हुई थीं जिन्हें ‘Easterling’कहते थे। इनमेंभारत (East) से आयात हुई सामग्री रखी जाती थी। भारत से पहुँचा माल वजन औरगुण में शुद्ध होता था। इसी कारण ईस्टरलिंग से निकले शब्द ‘स्टरलिंग’ काअर्थ भी शुद्ध रखा गया। यह थी भारतीय व्यापारियों के माल की साख।
न केवल व्यापार जगत, मानव सभ्यता के अन्य क्षेत्र भी भारत की अलौकिक कांतिसे अछूते नहीं थे। सांस्कृतिक व आध्यात्मिक पराकाष्ठा को प्राप्त हुआभारत, उस समय सभी क्षेत्रों के अद्भुत रत्नों को अपने भीतर समेटे हुए था।कालीदास, भवभूति आदि कवियों की काव्य प्रतिभा, दंड और बाणभट्ट की विलक्षणलेखन शक्ति, ऋषि कणाद व कुम्भक के वैज्ञानिक आविष्कार; आयुर्विज्ञान, ज्योतिर्विज्ञान जैसी विद्याएँ- सभी प्रमाणित करते हैं कि पुरातन काल मेंभारत सामाजिक, वैज्ञानिक, दार्शनिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में पूर्ण विकसितथा। फ्रैडरिक लुई इसी बात का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि, “जब यूरोपसभ्यता से बहुत दूर था, उस समय के अवशेष जो एशियाई प्रदेशों में पाए जातेहैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि भारत निवासियों ने सभ्यता के निर्माण काठोस आधार पा लिया था।”
ऐसी थी हमारी श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति; जिसके समक्ष सम्पूर्ण विश्वश्रद्धावत नमन करने के लिए बाध्य हो गया था। परन्तु उपरोक्त गाथा आज एकस्वर्णिम इतिहास बन कर रह गई है। आज वह ठोस आधार कहाँ लुप्त हो गया जिसकेऊपर इस महान संस्कृति का गौरवमयी महल स्थापित था? ऋषिगणों के आशीषों मेंपली, श्री राम की मर्यादा, बुद्ध की सत्यपथगामिता, श्री कृष्ण केदिव्य-कर्म पथ की साक्षी यह भारत-भूमि आज इतनी निर्जीव और शुष्क क्यों होगई है? बात केवल यह नहीं है कि पूर्वकाल में भारत सुसंस्कृत व वैभव पूर्णराजमहल जैसा था। विचारणीय तथ्य तो यह है कि वह आज क्यों एक खंडहर के समानहो गया है? इस प्रश्न के उत्तर में पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित कुछ शिक्षितजनों का कहना है- ‘Too much religion has ruined India – धर्म की अतिशयताने ही भारत का विनाश किया है। चूंकि हमने केवल नीरस व वैराग्यपूर्णअध्यात्म को ही महत्व दिया इसलिए अन्य क्षेत्रों में कभी विकास की ओर कदमही नहीं बढ़ाए। इसी अविकसित स्थिति का परिणाम था कि हमें परतंत्रता कीजंजीरों में भी बंधना पड़ा।’ यह तर्क तो उन्हीं को अर्थपूर्ण लग सकता है जोअध्यात्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। परन्तु जो अध्यात्म की सत्यतासे परिचित हैं, वे जानते हैं कि इस अवांछनीय स्थिति का कारण अध्यात्म काआधिक्य नहीं अपितु उसका अभाव रहा। यदि भारत की आधी संख्या ने भी अध्यात्मको सच्चे अर्थों में अपनाया होता तो हम वहाँ न होते जहाँ आज विवश होकर खड़ेहैं। हमारा व्यक्तिगत जीवन अत्यंत अधार्मिक, स्वार्थपूर्ण व भौतिक हो गयाथा, इसलिए हम पतन की खाईयों में जा गिरे। अतः भारत के युग-युगीन सनातनआदर्श-अध्यात्म को नकारना समस्या का सही समाधान नहीं है अपितु इसके वास्तविकस्वरूप को जानकर धारण करने की आवश्यकता है। यही उत्तर था स्वामीविवेकानन्द जी का, जब भारत की वर्तमान स्थिति पर आश्चर्य चकित हो एक विदेशीने उनसे पूछा था, “वेदों की भूमि भारत आज इतनी दयनीय अवस्था में क्योंहै?”विवेकानंद जी ने समस्या का मूल बताते हुए कहा कि, “यदि किसी मनुष्य केपास बन्दूक है परन्तु वह उसे चलाना न जानता हो तो अवश्य ही शत्रु सेपराजित हो जाएगा। भारत के पास अथाह आध्यात्मिक कोश है, जो सभी प्रकार कीनिर्धनता को दूर कर सकता है, परन्तु आज भारतवासी इस कोश का लाभ उठाना नहींजानते, इसी कारण पिछड़ गए हैं।”
यह सर्वविदित है कि यदि हमारा जीवनाधर रक्त शुद्ध व स्वस्थ है तो देह कोसंक्रामक रोग नहीं लग सकते। भारत का प्राणाधर अध्यात्म है। जब तकभारतवासियों के रोम-रोम में आध्यात्मिकता का रक्त प्रवाहित होता रहा, तथाजब तक इसके कण-कण में ‘अमृतस्य पुत्राः’, ‘आत्मान् विजातिही’ अर्थात्‘आत्मा को जानो’ आदि सत्यवचनों की गूँज रही, तब तक भारत सशक्त राष्ट्र बनारहा। परन्तु जैसे ही वह आध्यात्मिकता से दूर हुआ, इसकी शक्ति क्षीण होतीचली गई। परिणामस्वरूप, दुर्बल हुई उसकी देह विभिन्न राजनैतिक, आर्थिक वसामाजिक कुरीतियों के आघात से रोगग्रस्त होती गई। यही कारण है, कि वर्तमानभारत इतना खोखला व बदरंग नजर आ रहा है। भ्रष्टाचार और राजनैतिक कदाचार केनित्य नए मामले प्रकाश में आने लगे हैं।
आज हमारे द्वारा किए गए प्रयास जैसे सुदृढ़ राजनीतियों का संगठन, गगन चूमतीआर्थिक प्रगति, भौतिक पदार्थों की अविराम दौड़, परमाणु शक्ति की वृद्धि आदि -सभी एकजुट होकर भी भारत की प्राचीनतम कीर्ति व दिव्यता को पुनः प्राप्तकरने में विफल हो रहे हैं। आध्यात्मिक आधार के अभाव में यह सभी उपलब्धियाँनिरर्थक साबित हो रही हैं। इसलिए श्री आशुतोष जी महाराज प्रायः कहा करतेहैं- ‘यदि भारत को पुनर्जीवित करना है, तो अध्यात्म के विराट प्रकाश पुँजकी ओर लौटना होगा; ब्रह्मज्ञान द्वारा ब्रह्म की प्रत्यक्ष अनुभूति करनीहोगी, जीवन के मूल स्रोतों एवं शक्तियों को अपने ही भीतर जानना होगा।’प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ब्रह्म तत्व की जाग्रति ही सम्पूर्ण भारत कारूपांतरण व दिव्यीकरण कर सकेगी। इसलिए ‘दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान’ब्रह्मज्ञान के प्रचार द्वारा महर्षि अरविंद जी के उस स्वप्न को साकार करनेके लिए कृतसंकल्प है कि“भारत एक दिन फिर जगत-गुरु कहलाएगा।”