New Delhi News, 10 Nov 2019 : आज से लगभग 550 वर्ष पूर्वअंध-परम्पराओं का सघन कोहरा सर्वत्रव्याप्त था। जनजीवन कुरीतियों, कुसंस्कारोंएवं मूढ़ विश्वासों से पूर्णतया तमाच्छादित होचुका था। निरर्थक रूढ़ियों की काली रात में समाज पाषाणवत् सोया पड़ा था।ऐसे तमोमय, जड़ीभूत समाज मेंएक चिन्मय प्रकाशपुँज उतरा, श्री गुरु नानक देव जी के रूप में| इस प्रकाश के आविर्भाव के साथ ही समाज में एक नवीनअरुणोदय हुआ। वह भी इतना उज्ज्वल कि वर्षों की गहरी निंद्रा में मग्न जनमानस को अन्ततोगत्वा जागना ही पड़ा। जड़ समाज अनुप्राणित होकर अमर्त्य चेतना से भर उठा। यही कारण है कि इस ज्योतिर्मय महापुरुष के प्राकट्य दिवस को आज वर्षोंपरांत भी हम प्रकाशोत्सव के रूप में मनाते हैं|
आज इस शुभ-अवसर पर थोड़ा चिंतन करें कि यह पर्वोत्सव मनाना सही मायनों में कब सार्थक है? क्या केवल भव्य आयोजन, उल्लास भरे बाह्य क्रियाकलाप इसकी विशद गरिमा को संजो सकते हैं? नहीं!जब तक हमने एस दिव्य विभूति केमहनीय आदर्शों को अंगीकार नहीं किया, तब तक सब निरर्थक है। जिसशाश्वत ज्ञान के महत् संदेश को श्री नानक देव जी देने आए थे, जब तक उसे जाना, समझाऔर हृदयस्थ नहीं किया, उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर पगनहीं बढ़ाए, तब तक सब अधूरा है।महापुरुषों के चरणों में हमारा नमन तभीमान्य है, जब उनकी कथनी हमारी करनी में उतर आए। अतः आइए इस परम-पुनीत अवसर पर हम श्री गुरु नानक देव जी के सोद्देश्य जीवन के कुछ अंशों पर दृष्टिपात करें।उनमें निहित दिव्य प्रेरणाओं का प्रसाद ग्रहण करें।
9-10 वर्ष की आयु में उनके पिता कालू ने यज्ञोपवीत संस्कार के भव्य-समारोहका आयोजन किया। इस समारोह में बालक नानक ने पुरोहित जी से जनेऊ पहनाए जाने की रस्म पर प्रश्न किये जिनका जवाब वह नहीं दे पाए। तब बालक नानक धाराप्रवाह बोले- ‘पुरोहितजी, पहना सकते हैं तो, ऐसा जनेऊ पहनाइए जो मेरीआत्मा का चिरसंगी हो। जो अक्षय हो। न कभी मलिन हो,न जले, न टूटे, न कभी विनष्ट हो।’
यहाँ विचारणीय है कि श्री गुरु नानक देवजी किसजनेऊ, किस प्रकार के यज्ञोपवीत संस्कार की ओर इंगितकर रहे हैं। दरअसल, हमारी सांस्कृतिक परम्परानुसारबालकों के आठ-नौ वर्ष के हो जाने पर उनका यज्ञोपवीतसंस्कार करने का विधान था। इस संस्कार को ‘उपनयनसंस्कार’ के नाम से भी संबोधित किया जाता है। उपनयनदो शब्दों के मेल ‘उप’+‘नयन’से बना है। यहाँ ‘उप’ काअर्थ है ‘निकट’ और ‘नयन’ का अर्थ है ‘ले जाना’|वैदिककाल में इस संस्कार के अंतर्गत माता-पिता अपनी संतानको एक श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु केसान्निध्य में ले जायाकरते थे। ऐसे पूर्ण गुरु बालक को ब्रह्मज्ञान में दीक्षित करतेथे। वस्तुतः यह बालक को द्विज बनाने की एक प्रक्रिया थी।मनुस्मृति का वचन है- ‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्द्विज उच्यते’अर्थात् जन्म से तो सभी शूद्र हैं। उच्चसंस्कारों द्वारा ही एक मनुष्य द्विज अर्थात् ब्राह्मण बनता है।
वास्तव में, ब्राह्मण वह नहीं, जिसने किसी विशेषजाति में जन्म लिया हो। ब्राह्मण वह है, जो ब्रह्म को जानताहै। जिसने अपनी हृदय गुफा में प्रवेश कर ब्रह्म कासाक्षात्कार किया है। श्री गुरु नानक देव जी ने भी अपनीवाणी में यही कहापूर्वकाल में, ब्रह्मनिष्ठ गुरु इस यज्ञोपवीत संस्कार के दौरानअपने शिष्य को ब्रह्म का साक्षात् दर्शन करा उसे ऐसा हीसच्चा ब्राह्मण बना देते थे।
‘द्विज’ शब्द का एक और निहितार्थ है- दूसरा जन्म।शिशु अपने माता-पिता के द्वारा पहला जन्म इस जगत मेंलेता है। दूसरा जन्म इस संस्कार द्वारा सतगुरु उसे प्रदानकरते हैं, उसके अंतर्जगत में। यह आध्यात्मिक जन्म है,आंतरिक जागरण है। संस्कार के अंतर्गत जनेऊ पहनाने कीप्रथा भी इसी जाग्रति की ओर संकेत करती है। जनेऊ तीनसूत्रों को परस्पर बट कर बनाया जाता है। इसके ये तीनधागे आध्यात्मिक विज्ञानानुसार हमारे मेरुदण्ड में स्थिततीन प्रमुख नाड़ियों के प्रतीक हैं- ईड़ा, पिंगला औरसुषुम्ना। यूँ तो मेरुदण्ड को चीरने पर इन्हें प्रत्यक्षतः नहींदेखा जा सकता। परन्तु सूक्ष्म जगत में इनकी बड़ीविलक्षण भूमिका है। गुरु प्रदत्त अंतर्बोध से ये तीनों नाड़ियाँ हमारी त्रिकुटी में आकर मिल जाती हैं। शास्त्रों में इसमिलन को आंतरिक त्रिवेणी कहा गया है। इन तीन नाड़ियों का संगम ही वास्तविक यज्ञोपवीतसंस्कार है। इसके द्वारा ही शिष्य को अपने भीतर ब्रह्म कासाक्षात्कार होता है। वह अंतर्जगत में दूसरा जन्म पाकरसच्चे अर्थों में द्विज (twiceborn) बन पाता है। ऐसानहीं कि इस उत्कृष्ट यज्ञोपवीत संस्कार का प्रावधानकेवल वैदिक संस्कृति में ही है। पारसी लोगों में इसे‘कुस्ती’कहा जाता है। मुसलमान इस संस्कार को‘बिस्मिल्ला पढ़ना’कहते हैं। ईसाईसम्प्रदाय में इसे बैप्टिजम (बपतिस्मा) कहते है।
पर चाहे इस संस्कार को किसी भी नाम से सम्बोधित किया जाए, इसके पीछे हमारे तत्त्ववेता महापुरुषों का एकही उद्देश्य था। वह यह कि बालकों को जीवन केआरंभिक काल में ही आंतरिक जाग्रति प्रदान कर देना। परकालान्तर में, यह संस्कार अपनी यथार्थ गरिमा खो बैठा।श्री गुरु नानक देव जी के प्रादुर्भाव काल में तो यह प्रथापूर्णतया अपना आध्यात्मिक रूप खो चुकी थी। मात्र एकऔपचारिकता, एक बाह्य कर्मकाण्ड बन कर रह गई थी।ऐसे में, श्री गुरु नानक जी ने अपने बाल्यकाल में ही इसरीति का जीर्णोद्धार किया। अत्यन्त शालीन वाणी में इसके कर्म काण्डीय पक्ष पर मार्मिक कुठाराघात किया। इसके उज्ज्वल आध्यात्मिक पहलू को समाज के समक्ष पुनःउजागर किया।
श्री गुरु नानक देव जी युगान्तरकारी महापुरुष थे। उन्होंनेअपने जीवनकाल में घूम-घूमकर चतुर्दिक उदासियाँ लीं।इनके अन्तर्गत उन्होंने तत्समय प्रचलित रूढ़ियों, हठधर्मिताऔर दुराग्रहों पर प्रभावशाली प्रहार किया। सम्पूर्ण देश मेंएक अद्वितीय क्रान्ति की दुंदुभि बजा दी। युद्धजन्य यारक्तरंजित क्रान्ति की नहीं। पूर्णतया श्वेत और अहिंसामयक्रान्ति की। रक्त का एक कतरा भी नहीं गिरा और मानवसमाज ज्योतिष्मान-पथ का अनुगामी बन गया। कर्मकाण्डोंकी अन्धी गलियों से निकलकर शाश्वत ज्ञान-भक्ति केआलोकमय मार्ग की ओर उन्मुख हो गया। क्योंकिसादगीपूर्ण लेकिन मर्मभेदी उपदेश और ब्रह्मज्ञान- यही श्रीगुरु नानक जी के अस्त्र थे।
श्री गुरु नानक देव जी के जीवन का एक और प्रसिद्धआख्यान है जिसमें उन्होंने बड़ीशालीनता सेउपासना की यथार्थ विधिको उजागर किया। उन्होंने बखूबी इंगित किया कि उपासनाकेवल बाह्य नमन या सिजदा नहीं। सच्ची उपासना तो वहहै, जहाँ मन उपास्य में लवलीन हो। आत्मा उसकी भक्तिमें तन्मय हो। प्रत्येक श्वाँस उसके चिन्तन में अनुरक्त हो।पर अहम् प्रश्न तो यही है कि ऐसी ध्यान-मग्नता लाएँकहाँ से? ऐसा एकाग्रचित्तता विकसित कैसे हो?अधिकांश ईश्वर-पिपासुओं का यही प्रश्न है। गुरुसाहिबान ने इस महाप्रश्न का एक ही समाधान दिया कि‘जिस प्रकार चलायमान पानी एक घड़े में डलकर बंधजाता है। उसा प्रकार हमारा अस्थिर मन ब्रह्मज्ञान द्वारास्थिर हो जाता है। यह ब्रह्मज्ञान केवल एक पूर्ण गुरु द्वाराही प्राप्य है।’वस्तुतः होता यह है कि सतगुरु जब ब्रह्मज्ञानप्रदान करते हैं, तो जिज्ञासु के अंतर्जगत का कपाट खुलजाता है। फिर वह अपने इस आंतरिक लोक में अनन्तदिव्य नजारे स्पष्ट देखता है। ईश्वर के अलौकिक रूप काप्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है।
श्री गुरु नानक देव जी ने अपनेप्रत्येक उपदेश व कर्म द्वारा समाज को इसी सच्ची उपासनाकी ओर अग्रसर किया था। नेत्रहीन मानव-जाति कोब्रह्मज्ञान के माध्यम से दिव्य-दृष्टि प्रदान की थी।अंतर्ज्योति का बोध कराकर इस शास्त्रोक्ति को बिल्कुलसिद्ध कर दिखाया था- निरंकार आकार कर जोतिसरूप अनूप दिखाइआ अर्थात् जब वह निराकारज्योतिष्मान पुरुष, आकार ग्रहण कर, इस धरा पर सतगुरुके रूप में अवतरित होता है, तो वह अपने ही ज्योतरूपका दर्शन करवाता है। यह हर युग, हर काल का एकअटल सत्य रहा है और रहेगा।यह दिव्य ज्योतिजाग्रति संस्थान की मासिक पत्रिका “अखंड ज्ञान” से उद्ग्रित लेख है।
(दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से प्रकाशोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ)