दशहरा पर्व विशेष: असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है पर्व दशहरा : दिव्य गुरु श्री आशुतोष महाराज

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नई दिल्ली : ईश्वर प्रेमियों के लिए दशहरा, दशमी या विजयादशमी आत्म चिंतन का पर्व है। यह पर्व हमें सोचने पर विवश करता है कि रावण को आज तक क्यों जलना पड़ रहा है और इसके विपरीत प्रभु भक्तों को आज भी पूजा जाता है। एक ओर सुग्रीव है जिसने प्रभु श्री राम के चरणों में शीश झुकाया और प्रभु का अनन्य भक्त बन गया। वहीं दूसरी ओर दसग्रीव है, तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने वाला प्रभु श्री राम का प्यारा नहीं बन पाया।

यदि गहराई से देखा जाए तो एक ही कारण उभरकर सामने आता है और वह है ‘ग्रीव’ अर्थात गरदन। रावण के दस शीश हैं परन्तु ‘सु’ भाव सुंदर नहीं हैं। जबकि बाली के छोटे भाई सुग्रीव के पास एक ही शीश है परन्तु ‘सु’ भाव सुंदरता से सजी हुई है। सुंदरता का संबंध यहाँ बाह्य जगत से नहीं अपितु आध्यात्मिक जगत से है। जो शीश भक्ति के सागर में डूब जाए, प्रभु के चरणों में नतमस्तक हो जाए वही सुंदर है। परन्तु जो ग्रीवा अहंकार से अकड़ जाए और प्रभु चरणों में झुकने का गुण भूल जाए वह बदग्रीव ही कहलाती है। आखिर क्या अंतर था दोनों के दृष्टिकोण में कि एक को हर दशमी पर जलाया जाता है और एक की गणना आज भी प्रभु श्री राम के परम भक्तों में की जाती है?

सुग्रीव के अंदर संतों के प्रति विश्वास और आदर भाव था। उसके अंदर एक विशेष गुण था। जब भी उसके जीवन में कोई उलझन आई तो उसके हल के लिए उसने तत्क्षण साधु की शरणागत ली। भगवान श्री राम और लक्ष्मण जी की ऋषिमुख पर्वत पर आगमन की सूचना मिलने पर सुग्रीव समझ नहीं पा रहा था कि यह दोनों सुंदर युवक बाली के भेजे हुए उसके दुश्मन हैं या फिर कोई कल्याणकारी मित्र? दुविधा कि इस घड़ी में उसने संत हनुमान जी की शरण ली। वहीं दूसरी ओर हनुमान जी जब रावण की सभा में पहुंचे तो उसने उनका अपमान किया। यही प्रमुख कारण था कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर, महाऋषि का पुत्र होते हुए भी रावण राक्षस पद को ही प्राप्त हुआ। रावण की दृष्टि मलीन थी इसीलिए तो उसे एक महान संत में केवल साधारण वानर ही दिखायी दिया और उनका निरादर किया।

सुग्रीव और दसग्रीव दोनों के ही मन शंकालु प्रवृत्ति के थे। परन्तु दसग्रीव की प्रभु राम के प्रति शंका ने उसे उनका दुश्मन बना दिया। वहीं सुग्रीव ने भी प्रभु राम पर शंका की परन्तु अपनी शंका को सहज भाव से प्रभु चरणों में रखकर शंका का निवारण किया। उधर दसग्रीव ने ऐसे विचारों और व्यक्तियों का संग किया जो उसके शंकालु विचारों को और पुख्ता करते थे। मन भी दोनों का अहंकारी था परन्तु सुग्रीव के अहंकार की दीवार मिट्टी जैसी और दसग्रीव की चट्टान जैसी मजबूत थी। माया के भ्रमित करने पर सुग्रीव ने वैराग्य को अपने हृदयासन पर स्थान दिया। तो वहीं दसग्रीव ने वैराग्य को इंद्र द्वारा मरवाने की कोशिश की।

दसग्रीव भगवान शिव को अपना इष्ट मानता था और सुग्रीव प्रभु श्री राम को। दोनों ही इष्ट प्रथम बार अपने साधकों के पास स्वयं चल कर गए। सुग्रीव ने इसे प्रभु की कृपा समझा और उसके पश्चात वह ही सदैव अपने इष्ट के पास चलकर गया। वहीं दसग्रीव की हठ के कारण भगवान शिव को स्वयं प्रतिदिन चल कर उसके पास आना पड़ता था। दसग्रीव को यह अहं था कि वह भगवान शिव का इतना बड़ा भक्त है कि स्वयं त्रिलोकीनाथ शिव को उससे पूजा करवाने के लिए प्रतिदिन लंका आना पड़ता है। भाव कि उसने भक्ति को भी अहंकार का साधन बना लिया था। रावण के अहंकार की अग्नि में उसकी लंका और सम्पूर्ण कुल जलकर राख हो गए। सिर्फ श्री राम ही नहीं उन्हें मानने वाला हर भक्त रावण को जला कर अज्ञानता पर ज्ञान की विजय के इस पर्व को सदियों से मनाता चला आ रहा है। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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