बहन भाई का एक-दूसरे को प्रभु-संरक्षण में सौंपना : गुरुदेव आशुतोष महाराज

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New Delhi, 30 July 2020 भारतीय संस्कृति की अद्वितीयता ही है यह! एक धागे के बल पर रक्षा का वचन जीत लेना! एक मंगल-सूत्र की ताकत पर आजीवन सम्बन्ध-बंधन में बँध जाना— इन्हीं संस्कारों का सबसे प्रखर रूप देखने को मिलता है- रक्षा-बंधन के त्यौहार में! सूर्य-चन्द्राधारित भारतीय पंचांग के अनुसार ‘श्रावण’ महीने की पूर्णमासी को यह पर्व सकल भारतवर्ष में मनायाजाता है, विशेषकर उत्तर व दक्षिण भारत में। इसलिए इसे ‘राखी पूर्णिमा’ या ‘श्रावण पूर्णिमा’ भी कह देते हैं।

हर प्रांत में इसका परम्परागत स्वरूप लगभग एक जैसा ही है। बहन अपने सगे या ममेरे-चचेरे-फुफेरे-मौसेरे या धर्म भाई की कलाई पर रक्षा-सूत्र (राखी) बाँधती है तथा उसके स्वस्थ आयुष्य कीशुभकामना करती है। इसके स्थान पर भाई अपनी बहन को आजीवन रक्षित करने का वचन देता है। अनुपम पवित्रता और शुद्ध भावनाओं का अद्भुत संगम है यह पर्व, जो विश्व के समक्ष ‘भाई-बहन’ के पावनतम सम्बन्ध को उजागर करता है।

परन्तु पाठकगणों! विचारणीय है, हमारे ट्टषियों या अवतारी सत्ताओं द्वारा स्थापित यह पर्व क्या केवल इतनी ही पहुँच रखता होगा? क्या एक बहन अपने भाई के लिए स्वास्थ्य या आयुष्य ही माँग सकती है? इससे उच्च कुछ नहीं? क्या एक भाई अपनी बहन के शील और सम्मान के रक्षण से ही बँधा है? क्या इससे उच्च भी उसका कोई दायित्व है? आइए, यह जानने के लिए हम रक्षा-बँधन के पर्व से जुड़ी एक दंत-कथा का अवलोकन करें।

भागवत महापुराण और विष्णु पुराण में यह कथानक वर्णित है। बात उस समय की है, जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार रूप में राजा बलि से उसका सर्वस्व दान में ले लिया। उसके पश्चात् अति प्रसन्न होकर स्वयं को उसके द्वारपाल के रूप में सौंप दिया। जब नारायण बैकुण्ठ धाम नहीं लौटे, तो महालक्ष्मी जी अत्यंत व्यथित हो उठीं। अपने स्वामी को लौटा लाने हेतु उन्होंने एक दिव्य योजना बनाई। वे श्रावण पूर्णिमा के दिन राजा बलि के राज्य में पहुँच गईं और उसकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँध दिया। महालक्ष्मी को बहन के रूप में प्राप्त कर बलि मुदित हुआ और उन्हें भेंट स्वरूप कुछ माँगने का अवसर दिया। अवसर संभालकर, महालक्ष्मी जी ने तुरन्त अपनी मनोकामना रखी- ‘भईया, मुझे मेरे प्रभु नारायण वापिस दे दो।’ राजा बलि का विराट हृदय अपनी धर्म-बहन की माँग के प्रति समर्पित हो गया। उसने सादर प्रभु नारायण से विनय की- ‘आप बहन लक्ष्मी के संग लौट जाएँ।’ इस प्रकार महालक्ष्मी का मनोरथ पूर्ण हुआ। बलि को भी श्री हरि का निराकार सान्निध्य सदा-सदा के लिए मिल गया।

कहते हैं, तभी से प्रत्येक वर्ष ‘श्रावण पूर्णिमा’ को रक्षा-बंधन का पर्व मनाया जाने लगा। रक्षा-सूत्र बाँधते हुए बहनें यह मंत्र भी उच्चारित करने लगीं-

येन बद्धो बलिः राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामनुवध्नामि रक्षेः मा चल मा चल।।

अर्थात् जैसे महाबली दानवराज बलि को बाँधा गया था, वैसा ही रक्षा-सूत्र मैं बाँधती हूँ। हे सूत्र! दृढ़वत् होकर मेरी भी रक्षा करना।परन्तु क्या केवल एक सूत्र में रक्षण का सामर्थ्य है? सूत्र-बंधन के पीछे जो महाभाव है- हमें उसे पकड़ना होगा।

यह कथानक स्पष्ट दर्शा रहा है कि एक भाई और बहन के सम्बन्ध के बीच कोई धुरी है, तो स्वयं भगवान! बहन भाई से क्या माँग रही है? धन-दौलत या कोई भौतिक भेंट नहीं! वह माँग रही है, केवल भगवान! क्योंकि वह जानती है कि भगवान सर्वव्यापी व सर्वसमर्थ हैं। वही हर पल, हर स्थान पर उसके सम्मान और शील की रक्षा कर सकेंगे। भाई भी अपनी बहन को सहर्ष ‘ईश्वर’ सौंप रहा है।

दूसरी ओर, बहन भी अपने भाई को ईश्वर के संरक्षण में सौंपती है, जो स्वास्थ्य और आयुष्य का एक मात्र रक्षक है। परम्परानुसार बहनें रक्षा-सूत्र बाँधती हुई विष्णु पुराण (5/5/17-21) का यह अपूर्व मंत्र भी गुनगुनाया करती थीं-

‘वामनो रक्षतु सदा भवन्तं यः क्षणादभूत्।’- हे भाई! भगवान वामन हर क्षण तेरी रक्षा करें।
शिरस्ते पातु गोविन्दः कण्ठं रक्षतु केशवः।
गुह्यं च जठरं विष्णुर्जंघेच पादौ जनार्दनः।।
हे भाई! गोविन्द तेरे सिर की, केशव कण्ठ की, विष्णु गुह्य-स्थान और जठर की तथा जनार्दन जंघा और चरणों की रक्षा करें।
मुखं बाहू प्रबाहू च मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
रक्षत्वव्याहतैश्चर्यस्तव नारायणो{व्ययः।।
हे भाई! तेरे मुख, बाहु, प्रबाहु (घुटने के नीचे का भाग), मन और सम्पूर्ण इन्द्रियों की अविनाशी श्री नारायण रक्षा करें।
त्वां पातु दिक्षु बैकुण्ठो विदिक्षु मधुसूदनः।
हृषीकेशो{म्बरे भूमौ रक्षतु त्वां महीधरः।।

हे भाई! भगवान बैकुण्ठ दिशाओं में, मधुसूदन विदिशाओं (कोणों) में, हृषीकेश आकाश में और श्री शेष जी पृथ्वी पर तेरी रक्षा करें। कितने मार्मिक हैं ये मंत्र! एक बहन अपने भाई के अंग-अंग को, हर स्थान, हर काल में प्रभु के संरक्षण में सौंप रही है। यही है रक्षा-बंधन की गरिमा! यही है इस पर्व का सार्थक स्वरूप!

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