New Delhi news, 31 Jan 2020 : 2012 में दिल्ली गैंगरेप मामले के संबंध में हमने इस तरह के अपराधों के लिए’मौत की सजा’की बढ़ती मांग को देखा है। ज्यादातर मामलों में, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों को रोकने के लिए मौत की सजा को अक्सर एक अंतिम समाधान के रूप में देखा जाता है। यहां सवाल यह है कि – क्या मौत की सज़ा महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा का एक मात्र समाधान है?
शायद नहीं, जस्टिस वर्मा समिति ने भी बलात्कार और हत्या के लिए 20 वर्ष के कारावास और सामूहिक बलात्कार के लिए आजीवन कारावास की सिफारिश करते हुए यौन अपराधों के समाधान के रूप में मृत्युदंड का सुझाव देने से परहेज किया है। इसके अलावा, पूरी दुनिया के आंकड़ों और शोध अध्ययनों से पता चलता है कि मौत की सजा इन अपराधों के लिए एक निवारक (रोक) के रूप में काम नहीं करती है।
बदायूं, उन्नाव सहित देश के कई अन्य हिस्सों से सामने आए यौन हिंसा के हालिया मामलों में देखा गया है कि कुछ लोगों को मिली ‘शक्ति और विशेषाधिकार’ यौन अपराधों से बचे लोगों को समय पर और त्वरित न्याय प्राप्त करने में बाधा पैदा करता है। इसे समाप्त करने के लिए, जांच की प्रक्रियाओं और न्याय व्यवस्था को मजबूत करने की आवश्यकता है,महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों की रिपोर्टिंग को सुव्यवस्थित किया जाना चाहिए और सबसे पहले महिलाओं और बच्चों के खिलाफ हिंसा,विशेष रूप से यौन अपराधों से जुड़े मामलों को संभालने के लिए जांच एजेंसियों और न्यायपालिका को संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है।
मौत की सजा, वास्तविक मुद्दे को संबोधित करने की जगह उन महिलाओं और बच्चों से ध्यान हटाती है जो अपने दैनिक जीवन में हिंसा के शिकार होते हैं।यह बाल यौन शोषण के मामलों में अकसर देखने को मिलता है कि अपराधी, पीड़ित के परिवार का सदस्य या जानने वाला होता है।नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB-2016)की रिपोर्ट के अनुसार,साल 2016 में भारत में बच्चों के खिलाफ यौन उत्पीड़न – बलात्कार के तहत दर्ज / रिपोर्ट किए गए सभी मामलों में से 94.6% दर्ज मामले उनके खिलाफ थे जो पीड़ित/पीड़िता के जानने वाले थे। इसलिए सरकार और न्यायपालिका के लिए यह जरूरी है कि वह सिस्टम की खामियों और संस्थागत बाधाओं की पहचान करें और उन्हें दूर करने के लिए कदम उठाएं जिससे हिंसा का सामना करने वालों को त्वरित न्याय मिल सके, उन्हें अल्पकालिक समाधान के रूप में मौत की सजा पर निर्भर नहीं रहना चाहिए क्योंकि यह महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा को रोकने में प्रभावी नहीं है।