भारतीय संस्कृति के अंतर्गत मनाए जाने वाला पर्व करवा-चौथ में छिपे मर्म को जाने : आशुतोष महाराज

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New Delhi news, 03 Nov 2020 : इस माह दशहरा व दीपावली के साथ एक और त्यौहार भी घर-आंगन मेंदस्तक दे रहा है। कार्तिक कृष्ण चतुर्थी को मनाया जाने वाला यह पर्व हैकरवा-चौथ का। भारतीय त्यौहारों में यह एक ऐसा उत्सव है जो पति-पत्नी के संबंधका परिचायक है। करवा-चौथ के दिन पतिव्रता स्त्रियाँ अपने पति के कुशलक्षेम वदीर्घ आयु के लिए व्रत रखती हैं। सूर्योदय से पूर्व तारों की छाँव में सर्गी खाने केपश्चात्‌इस उपवास का प्रारंभ होता है। व्रतधारियाँ पूरा दिन अन्न-जल ग्रहण नहींकरतीं। रात को चंद्रमा का दर्शन करने व उसको जल अर्पित करने के बाद ही व्रतपूर्ण होता है। उसके बाद ही स्त्रियाँ जल तथा अन्य खाद्य पदार्थ ग्रहण करती हैं।

पर भारतीय संस्कृति के अंतर्गत मनाए जाने वाले पर्व व व्रत मात्र बाहरी परंपराओंतक ही सीमित नहीं होते। उनके मध्य आत्मोन्नअति हेतु विराट व गूढ़ संदेश निहितहोते हैं। यदि पर्वों में निहित उन मार्मिक संदेशों को न समझा जाए,तो पर्वों कीपरंपराएँ मात्र अंधप्रथाएँ बनकर रह जाती हैं। उनकी वास्तविक गरिमा कहीं लुप्तहो जाती है। तो चलिए,करवा-चौथ के त्यौहार में छिपे मर्म को जानने का प्रयासकरते हैं।सबसे पहले बात करते हैं,उस कथा की जिसे सभी व्रतधारी स्त्रियाँ इस दिन पूजाके समय पढ़ती हैं।रानी वीरां की यहकथा मनुष्य की आत्मिकउन्नति के कई अनमोल रत्न अपने भीतर समेटे हुए है। दरअसल, इस कहानी में वीरां प्रतीक है- जीवात्मा अथवा साधक की। उपवास सूचक है- ईश्वर का सामीप्य प्रदानकरने वाली ध्यान-साधना का! इस साधनाको,यानी प्रयास को एक साधक को तब तकजारी रखना होता है,जब तक उसका चंद्रमायानी परमात्मा से मिलन न हो जाए।

किन्तु प्रकाश स्वरूप परमात्मा तक पहुँचने कीराह सरल नहीं होती। जीव को अनेक बाधाओं व संघर्षोंका सामना करना पड़ता है। इस साधना मार्ग पर अनेकानेकमायावी भ्रम अथवा भुलावे भी जीवात्मा के सामने आते हैं।ठीक जैसे कि वीरांके भाइयों ने चंद्रमा के उदित होने काभ्रम उत्पन्न किया। वीरां उसे सच समझ बैठी और उसनेभोजन ग्रहण कर लिया। परिणामतः उसका व्रत अथवासाधना पूर्ण नहीं हो पाई। वह अपने लक्ष्य को साध नहींपाई,अर्थात्‌ उसके पति की मृत्यु हो गई। ठीक यही स्थितिपथ से भ्रष्ट साधक की भी होती है। वह भी प्रभु मिलनकी राह पर निकलता तो है,यात्रा आरंभ तो करता है। परन्तुसांसारिक छलावों के प्रभाव में आकर भ्रमित हो जाता है।माया में ऐसा उलझता है कि अपना उपवास (साधना) पूर्णनहीं कर पाता। नकली चंद्रमा अर्थात्‌ आकर्षणों में फंसकरअपना उपवास तोड़ देता है,माने अपनी साधना खण्डित करबैठता है। इसलिए उसके पति की मृत्यु हो जाती है,यानीपरमात्मा से उसका मिलन नहीं हो पाता।

पर जब वीरां को आभास हुआ कि उससे गलती हो गईहै,तो उसने गणेश जी की आराधना कर पुनः निष्ठा सेउपवास किए और उन्हें पूरेप्राणपन से निभाया। फलतःवीरां का पति जीवंत हो उठा।पति-पत्नी का मिलन हुआ। गणेशजी प्रतीक हैं- विवेक के, सद्बुद्धिके।साधक भी जब विवेक से चलता हुआ पुनः प्रयास करता है,तो वह भी माया के फंदों को तोड़ने में सफल हो जाता है।सद्गुरु से प्राप्त ब्रह्मज्ञान की साधना करता हुआ,वह अपनेलक्ष्य परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। एक दिन यह जीवात्माअपने स्रोत परमात्मा में विलीन हो जाती है। यही कहलाताहै,आत्मा-परमात्मा (पति-पत्नी) का शाश्वत मिलन!शास्त्र ग्रंथ भी इस दिव्य संबंध को परिभाषित करते हैं।भागवत में वर्णित है-वासुदेव: पुमोनेक: स्त्रीभयमितरज्जगत्‌।अर्थात्‌ इस जगत में केवल एक ही पुरुष हैं। वे हैं,परम-आत्मा वासुदेव। शेष सभी आत्माएँ तो नारी हैं।

अतः आत्मा (नारी) को सद्गुरु के सान्निध्य में परमात्मा(परम पुरुष) से मिलन करने का संदेश देता है, करवा-चौथका पर्व!एक बार गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी से एकसाधक ने यह प्रश्न किया- ‘महाराज जी,करवा-चौथ केपर्व का क्या माहात्म्य है?’तब समाधान प्रदाता गुरुदेव नेसहज अंदाज़ में शास्त्रों की इसी गूढ़ता को उजागर किया। वेबोले- ‘करवा’ माने ‘करो’ और ‘चौथ’ मतलब ‘चार पदार्थ’। जब शिष्य पूर्ण गुरु की शरणागत होकर ब्रह्मज्ञान द्वारा चारपदार्थ का अनुभव करता है,तब उसके जीवन में यह पर्वसम्पन्न होता है। उसके बाद ही जीवात्मा का परमात्मा सेमिलन संभव होता है।गुरु ही शिष्य के मार्गमें आने वाली हर दुविधा के सम्मुख उसकी ढाल बनकरसहायता करते हैं। सारी विपरीतताओं को पार करा आत्माका परमात्मा से अटूट मिलन करवा देते हैं। ऐसा करने कासामर्थ्य मात्र ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु ही रखते हैं। अतः यह पर्वगुरु-शिष्य संबंध को प्रगाढ़ करने का संदेश देता है।

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