New Delhi, 14 Oct 2020 : यूँ तो विश्व भर में अनेकों रूपों में शक्ति की उपासना की जाती है। लेकिन भारत शक्ति उपासना का केन्द्र है। एक मात्र भारत ही ऐसा देश है, जहाँ शक्ति को ‘माँ’ कहकर पुकारा जाता है। माँ, जो अतुल्य आनंद एवं मातृत्व का ड्डोत है, जो सदा अक्षुण्ण, अबाध रूप में बहता है। हमारे आर्ष ग्रन्थों में इसी कारण माँ को अग्रगण्य स्थान प्रदान किया गया।
मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव।—
पितुः शतगुणा पूज्या वन्द्या माता गरीयसी।
अर्थात पिता से शतगुणा पूज्या माँ है, क्योंकि माँ एक शिशु के निर्माण में श्रेष्ठ भूमिका निभाती है। जिस प्रकार लौकिक माँ अपने बालक के विकास के लिए कभी स्नेह की वर्षा करती है, तो कभी क्रोधित होती है। ठीक उसी प्रकार माँ भगवती जगदम्बिका भी हम मानवों के कल्याण हेतु विविध रूप धारण कर इस धरा पर अवतीर्ण होती है। इसी का एक प्रमाण नवरात्रें के दिनों में भी देखने को मिलता है, जिसमें माँ दुर्गा की नौ रूपों में पूजा होती है। माँ नवदुर्गा इन नौ स्वरूपों में प्रकट होकर हमें अकूत प्रेरणा देती है व भक्ति के साथ जोड़ती है। कैसे? आइए जानते हैं-
शैलपुत्री
वन्दे वाञ्छितलाभायचन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्।।
नवरात्रें के प्रथम दिन माँ की शैलपुत्री के रूप में पूजा की जाती है। माँ का यह रूप ‘भक्ति में दृढ़ता’ का प्रतीक है। क्योंकि ‘शैल’ माने ‘पर्वत’ अर्थात जो पर्वत जैसी दृढ़ है, वही शैलपुत्री है। भक्तजनों, आज हम अपनी ओर देखें, तो हमारी भक्ति में वह अनिवार्य दृढ़ता नहीं है। हमारा श्रद्धा-विश्वास परिस्थितियों के थपेड़ों से डांवाडोल हो जाता है। किन्तु ग्रंथ बताते हैं कि इस रूप में माँ ने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तप किया था। जब उनकी परीक्षा के लिए सप्त ऋषि आए, तो माँ अपने संकल्प पर अडिग रही, चट्टान की भांति!
ब्रह्मचारिणी
दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
इस रूप की पूजा नवरात्रें के दूसरे दिन की जाती है। इसमें माँ ने सफेद वस्त्र धारण किए हुए हैं। उनके एक हाथ में कमण्डल और दूसरे में माला है। माँ का यह स्वरूप हमें सद्चरित्र की प्रेरणा देता है। क्योंकि जिसके पास चारित्रिक श्रेष्ठता नहीं, वह दुर्गति को प्राप्त होता है। यह चारित्रिक श्रेष्ठता किस प्रकार प्राप्त होती है? यही समझाने के लिए माँ ने ‘ब्रह्मचारिणी’ रूप व नाम धारण किया। ‘ब्रह्मचारिणी’ अर्थात् जो ब्रह्म में स्थित होकर आचरण करती है। यही प्रेरणा हमें माँ दे रही है कि ब्रह्म में स्थित होकर आचरण करो। मन के गुलाम बनकर वासनाओं के अधीन होकर नहीं! लेकिन अगला प्रश्न यही है कि हम ब्रह्म में स्थित कैसे होंगे? किसी में स्थित होने के लिए सर्वप्रथम उसे जाना जाता है, उसका दर्शन प्राप्त किया जाता है। इसलिए ब्रह्म का साक्षात्कार करना परमावश्यक है। एक तत्त्ववेता ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु ही हमें दिव्य चक्षु प्रदान कर उस प्रकाश स्वरूप परम सत्ता को हमारे भीतर दिखा सकते हैं। जब ऐसा ब्रह्मज्ञान गुरु कृपा से हमें मिलता है, तभी हम ब्रह्म में स्थित होकर आचरण कर पाते हैं।
चन्द्रघण्टा
पिण्डजप्रवरारूढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता।।
तीसरे नवरात्रे में माँ के इसी रूप की पूजा होती है। माँ के चंद्रघण्टा स्वरूप में दस भुजाएँ हैं, जो पांच कर्म-इन्द्रियों, पांच ज्ञानेन्द्रियों की प्रतीक हैं। माँ के इस रूप से हमें जितेन्द्रिय होने की शिक्षा मिलती है। जो मानव इन इन्द्रियों के अधीन है, वह सदैव बंधन में जीवन व्यतीत करता है। इसलिए माँ भगवती कहती हैं-
रूपं मे निष्कलं सूक्ष्मं वाचातीतं सुनिर्मलम्।
निर्गुणं परमं ज्योतिः सर्वव्याप्येककारणम्।।
मुमुक्षुओं को देह बन्धन से मुक्ति के लिए मेरे निष्कल, सूक्ष्म, वाणी से परे, अत्यंत निर्मल, निर्गुण, परम ज्योति, इंद्रियातीत स्वरूप का ध्यान करना चाहिए (जो ब्रह्मज्ञान द्वारा ही अंतर्जगत में प्रकट होता है)।
कूष्माण्डा
सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपप्राभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे।।
चौथे नवरात्रे के दिन इस रूप की पूजा होती है। संस्कृत साहित्य के आधार पर इसका अभिप्राय है- ‘कु ईषत् उषमा अण्डेषु बीजेषु यस्य’ अर्थात् जो किसी भी बीज व अण्डे में से ऊर्जा को निकाल कर ग्रहण करती है, उसे ‘कूष्माण्डा’ कहा जाता है। इस रूप के द्वारा माँ हमारे ध्येय की ओर इशारा करती है कि इस सृष्टि का सार वह परमात्मा है। जिस प्रकार बीज में वृक्ष व अण्डे में जीव विद्यमान है, उसी प्रकार इस सृष्टि के मूल में ऊर्जा समाई है जो परमात्मा का सूक्ष्म स्वरूप है। उस ऊर्जा को जान लेना ही हमारे नर तन का लक्ष्य है।
स्कन्दमाता
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।।
पंचम नवरात्र के दिन स्कन्दमाता की पूजा होती है। माँ का यह स्वरूप सात्त्विक शक्ति का प्रतीक है। माँ की गोद में उनका पुत्र स्कन्द है, जिन्हें देवताओें का सेनापति कहा जाता है। हम सभी जानते हैं कि जब तारकासुर के आतंक से देवतागण भयभीत थे, तो उनका भय दूर करने के लिए सात्त्विक शक्ति के रूप में माँ ने उन्हें स्कन्द जैसा पुत्र प्रदान किया था। असुर का अर्थ अंधकार है, तो स्कन्द प्रकाश है। असुर अगर मृत्यु हैं, तो स्कन्द अमृतस्वरूप है। असुर यदि असत्य हैं, तो स्कन्द सत्य है। इस प्रकार माँ यही प्रेरणा देती है कि तुम भी ज्ञानस्वरूप स्कन्द को अपना सेनापति बनाकर जीवन-युद्ध जीत जाओ।
कात्यायनी
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।
माँ के इस रूप की पूजा छठे नवरात्रे में होती है। माँ कात्यायनी ऋषि कात्यायन की तपस्या के फलस्वरूप उनकी पुत्री के रूप में प्रकट हुई थीं। इसी रूप में माँ ने महिषासुर का मर्दन कर पृथ्वी-वासियों को अभय दान दिया था। वास्तव में, असुर केवल उस समय ही नहीं, आज के परिवेश में भी हैं। क्योंकि असुर हमारी दुर्वृत्तियों को कहा गया है। महिषासुर का भाव ‘महिष’, माने भैंसा। जिसमें पशुता है, पाश्विकता है, वही महिषासुर है। जब-जब हमारे भीतर हिंसा, निकृष्टता व पाप का बोलबाला होता है, तो माँ के प्रकटीकरण की परमावश्यकता होती है। माँ हम सभी के अन्दर चेतना स्वरूप में विद्यमान है-
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
ब्रह्मज्ञान द्वारा अपनी इस सुप्त चेतना को जागृत कर लेने से हम भी दुर्गुणों रूपी महिष का नाश कर सकते हैं। यही माँ कात्यायनी की प्रेरणा है।
कालरात्रि
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ता खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी।।
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धन्मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी।।
सातवें दिन इनकी पूजा होती है। माँ कालरात्रि का वर्ण काला है। उनके साथ काल का घनिष्ठ संबंध है। वास्तव में, काल क्या है? जो सब पदार्थों का विनाश करता है, वही काल है। वस्तुतः काल के गर्भ से ही सारे भूत पदार्थों की उत्पत्ति होती है तथा काल के गर्भ में ही सबका लय हो जाता है।
कालः पचति भूतानि कालः संहरति प्रजाः।
अतः जो काल के ऊपर प्रतिष्ठित है, जो नित्यसिद्धा महाशक्ति है, वही काली है। जो कालरूप जगत का आधार है- ‘कालो ही जगदाधारः’, आश्रय है, वही काली है। वे हमें मृत्यु के भय से मुक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा देती हैं। माँ कालरात्रि की पूजा के साथ आज बहुत सी मिथक बातें जुड़ी हुई हैं। अनेक लोग माँ को प्रसन्न करने के लिए भैंसे व बकरे की बलि चढ़ाते हैं। परन्तु यह एक भयंकर व अक्षम्य पाप है। माँ कभी भी अपने भक्तों से इस प्रकार की बलि नहीं चाहती। अपितु हमारे शास्त्रें में विकार रूपी पशुओं की बलि देने को कहा गया है।
कामक्रोधौ द्वौ पशू इमावेव मनसा बलिमर्पयेत्।
कामक्रोधौ विघ्नकृतौ बलिं दत्त्वा जपं चरेत्।।
काम और क्रोध रूप दोनों विघ्नकारी पशुओं का बलिदान करके उपासना करनी चाहिए। यही शास्त्रेक्त बलिदान का रहस्य है।
महागौरी
श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
महागौरी माँ का आठवें नवरात्रे में पूजन होता है। इस रूप में माँ का वाहन वृषभ है, जिसका भाव धर्म होता है। माँ इस रूप में हमें समझाती हैं कि हमारे जीवन में धर्म की परमावश्यकता है। धर्म ‘धृ’ धातु से उद्भुत है, जिसका अर्थ है- धारण करना। उस परमसत्ता को, जो हमारे अंतःकरण में विराजमान है। इसी धर्म को धारण करने से जीवन में प्रखरता व उज्ज्वलता का साम्राज्य स्थापित हो पाता है और यही महागौरी का संदेश है।
सिद्धिदात्री
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।
नवम नवरात्रे के दिन माँ के इस स्वरूप की पूजा की जाती है। सिद्धिदात्रि अपने नाम से ही यह परिभाषित करती हैं कि वे सिद्धियों को देने वाली हैं। लेकिन हमारे जीवन में माँ इस रूप में तभी प्रकट होती है, जब हम समस्त विद्याओं की सारभूत ब्रह्मविद्या को धारण कर लेते हैं। माँ स्वयं कहती हैं-
ये मां भजन्ति सद्भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।
न च मेस्तिप्रियः कश्चिदप्रियोपि महामते।।
– देवी पुराण (18-39)
अर्थात जो लोग मेरी वास्तविक भक्ति को जान कर मेरी आराधना करते हैं, वे मुझमें और मैं उनमें स्थित रहती हूँ। वे मेरे द्वारा प्रदान की गई सिद्धियों को स्वतः ही प्राप्त कर लेते हैं।
अतः भक्तजनों, माँ अपने नव रूपों में समग्र मानवजाति को यही संदेश देती हैं-
एवं वियुक्तकर्माणि कृत्वा निर्मलमानसः।
आत्मज्ञानसमुद्युक्तो मुमुक्षुः सततं भवेत्।।
– देवी पुराण (17-67)
शुद्ध अंतःकरण वाले मोक्षार्थी साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति में निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए।