New Delhi news, 18 May 2021 : ‘ध्यान’ = ध्याता+? आईये हम उक्त प्रश्नचिन्ह का उत्तर जानते है। हमारे समस्त शास्त्र-ग्रंथों के अनुसार इस सकल जगत में साधने योग्य एकमात्र ध्येय वह चिरस्थायी सत्ता है, जो हर मनुष्य के भीतर स्थित ‘प्रकाश स्वरूप आत्मा’ है। यही वह स्थिर परम-बिंदु है, जो स्थायी और नित्य आनंद का केंद्र है। यही वह महा-लक्ष्य है, जिसे बींध कर हमारे मन का विकल तीर शांत हो सकता है। तभी गीता में जब योद्धा अर्जुन ने अपने व्यग्र मन की दशा व दिशा रखी, तो प्रभु श्री कृष्ण ने ‘ध्यान’ की प्रक्रिया के सम्बंध में यही कहा – यतो यतो निश्चरति मनश्चज्चलमस्थिरम्। ततस्ततो नियम्येतदात्मन्येव वशं नयेत्।। (गीता 6:26) अर्थात् यह चंचल और अस्थिर मन जिन-जिन कारणों से विषयों में विचरण करता है, उन्हें संयमित कर ‘आत्मा’ के वश में लाएँ; आत्मा में स्थिर करें। ‘आत्मा’ रूपी ‘ध्येय’ में मन का स्थित हो जाना ही ध्यान है। स्वामी विवेकानंद भी कहा करते थे- ‘I mean by Meditation- the mind trying to stand up on soul.’ उपनिषद में मनीषी कहते है- ह्रदय (यहाँ मस्तक पर स्थित आध्यात्मिक ह्रदय की बात की जा रही है) में ही आत्मा रूपी ध्येय का निवास है- हृदि अयम्।
अपने ‘दिव्य सिम कार्ड’ को एक्टिवेट कराएँ!
यह आध्यात्मिक ‘हृदय’, जो आत्म-तत्त्व (ध्येय) का निवास स्थल है, हमारे मस्तक के बीचोंबीच अर्थात् आज्ञा चक्र पर स्थित माना गया है। किन्तु यहाँ जानने योग्य बात यह है कि इस आज्ञा चक्र पर सीधे मन को एकाग्र करने से भी काम नहीं बनेगा, ध्यान नहीं सधेगा। केवल अंधकार का ही साक्षात्कार कर पाएँगे, आत्मतत्व के प्रकाश से तो अब भी वंचित ही रहेंगे। हमारा यत्न ऐसा होगा जैसे बिना SIM Card वाले मोबाइल से सम्पर्क जोड़ना। यह दिव्य सिम कार्ड (Spiritual SIM Card) क्या है? सभी प्रमाणित शास्त्रों के अनुसार इसे तृतीय नेत्र, दिव्य नेत्र या शिव नेत्र कहते हैं, जो हमारे आध्यात्मिक हृदय के बीचोंबीच स्थित होता है। एक पूर्ण गुरु ‘ब्रह्मज्ञान’ की दीक्षा देते समय इसी अलौकिक नेत्र को खोल देते है अर्थात् दिव्य सिम कार्ड को एक्टिवेट कर डालते है। इस दिव्य दृष्टि के प्राप्त करते ही, भीतर स्थित आत्म-तत्व का प्रकट दर्शन होता है। उपनिषद का कथन है- ज्ञाननेत्रं समादाय उद्धरेद्वह्नि वत्परम्। निष्कलं निश्चलं शान्तं तद्ब्रम्हाहमिति स्मृतम।। अर्थात् अरणि मंथन से जैसे अग्नि प्राप्त होती है, उसी प्रकार ज्ञान-नेत्र (दिव्य-दृष्टि) द्वारा अग्नि के समान उज्ज्वल ब्रह्म-तत्त्व को साक्षात् प्रत्यक्ष करो। पाश्चात्य दार्शनिक डेकार्ट ने भी अपने एक चित्र में इसी स्थल के इर्द-गिर्द तेज़ किरणें अथवा आभा-मंडल दिखलाया है। यह संकेत करने हेतु कि इसी स्थल पर आत्म-स्वरूप के विलक्षण प्रकाश की अनुभूति होती है। अकसर महानुभावों का यह मानना होता है कि आत्म या परमात्म तत्त्व दर्शनीय नहीं होता। परन्तु यह धारणा न तो शास्त्रानुकूल है और न ही तत्त्वज्ञानियों के मत से मेल रखती है। अतः सद्गुरु द्वारा प्रकट ‘दिव्य-नेत्र’ से परम या आत्म-तत्त्व का दर्शन किया जाता है। इस प्रकाश स्वरूप में ही व्यक्ति का मन एकाग्र व लीन होता है।
और यहीं से होता है, ‘ध्यान’ का मंगलारम्भ! इसीलिए हमें अपने जीवन के अंदर ऐसे पूर्ण सद्गुरु की खोज करनी है जो हमें दीक्षा प्रदान कर हमारे उस दिव्य चक्षु को खोल दें। जिसके बाद अंदर कुछ दिखे ध्येय मिले। हमारा ध्यान सफल हो पाए। यहीं शाश्वत्व प्रक्रिया हमारे समस्त धार्मिक ग्रंथ बताते है। जब मन को एकाग्रता मिलती है, तो हमारे विचार (thought) हमारे नियंत्रण में आते है। तो जीवन का हर एक कार्य नियंत्रण में होता है। Controlled जो हमारे कर्म है तो कार्य हमेशा अच्छा होगा। काम नियंत्रण में है तो हमारा आचरण (conduct) अच्छा बनता है। आचरण अच्छा है तो सारा का सारा जीवन ही अच्छा बनता है। और इस प्रकार जब एक-एक व्यक्ति अच्छा बनता है तो समस्त समाज विश्व ही कल्याण को प्राप्त होता है। फिर सब तरफ शांति और संतुष्टि की भावना पैदा होती है। तब जीवन में निराशा का कोई स्थान नहीं होता। अर्जुन के बारे में तो हम सभी ने सुना है कि वह एक महान व्यक्ति था । किन्तु उसकी महानता को पूर्णता तभी मिली जब श्रीकृष्ण जी ने ध्यान की शाश्वत्व प्रक्रिया (गीता 11:8) दी और अर्जुन श्रेष्ठ बन पाया। सारांशतः ‘बाहरी नेत्रों को बंद करना ध्यान नहीं, अपितु दिव्य-नेत्र का खुल जाना ध्यान का आरम्भ है।’