जानिए क्यों मनाई जाती है गुरु पूर्णिमा, क्या है इसका महत्व : आशुतोष महाराज

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New Delhi News, 10 July 2019 : शताब्दियों पूर्व, आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को महर्षि वेद व्यास जी का अवतरण हुआ था। वही वेद व्यास जी, जिन्होंने वैदिक ऋचाओं का संकलन कर चार वेदों के रूप में वर्गीकरण किया था। 18 पुराणों, 18 उप-पुराणों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, महाभारत आदि अतुलनीय ग्रंथों को लेनीबद्ध करने का श्रेय भी इन्हें ही जाता है।

व्यास जी के लिए प्रसिद्ध है कि ऐसा कोई विषय नहीं, जो महर्षि वेद व्यास जी का उच्छिष्ट या जूठन न हो। ऐसे महान गुरुदेव के ज्ञान-सूर्य की रश्मियों में जिन शिष्यों ने स्नान किया, वे अपने गुरुदेव का पूजन किए बिना न रह सके| अब प्रश्न था कि पूजन किस शुभ दिवस पर किया जाए। एक ऐसा दिन जिस पर सभी शिष्य सहमत हुए, वह था गुरु के अवतरण का मंगलमय दिवस। इसलिए उनके शिष्यों ने इसी पुण्यमयी दिवस को अपने गुरु के पूजन का दिन चुना। यही कारण है कि गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। तब से लेकर आज तक हर शिष्य अपने गुरुदेव का पूजन-वंदन इसी शुभ दिवस पर करता है।

वैज्ञानिक भी आषाढ़ पूर्णिमा की महत्ता को अब समझ चुके हैं! ‘विस्डम ऑफ ईस्ट’ पुस्तक के लेखक आर्थर चार्ल्स स्टोक लिखते हैं- जैसे भारत द्वारा खोज किए गए शून्य, छंद, व्याकरण आदि की महिमा अब पूरा विश्व गाता है, उसी प्रकार भारत द्वारा उजागर की गई सद्गुरु की महिमा को भी एक दिन पूरा विश्व जानेगा। यह भी जानेगा कि अपने महान गुरु की पूजा के लिए उन्होंने आषाढ़ पूर्णिमा का दिन ही क्यों चुना? ऐसा क्या खास है इस दिन में? स्टोक ने आषाढ़ पूर्णिमा को लेकर कई अध्ययन व शोध किए। इन सब प्रयोगों के आधार पर उन्होंने कहा- ‘वर्ष भर में अनेकों पूर्णिमाएँ आती हैं- शरद पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा, वैशाख पूर्णिमा…आदि। पर आषाढ़ पूर्णिमा भक्ति व ज्ञान के पथ पर चल रहे साधकों के लिए एक विशेष महत्त्व रखती है। इस दिन आकाश में अल्ट्रावॉयलेट रेडिएशन (पराबैंगनी विकिरण) फैल जाती हैं। इस कारण व्यक्ति का शरीर व मन एक विशेष स्थिति में आ जाता है। उसकी भूख, नींद व मन का बिखराव कम हो जाता है।’ अतः यह स्थिति साधक के लिए बेहद लाभदायक है। वह इसका लाभ उठाकर अधिक-से-अधिक ध्यान-साधना कर सकता है। कहने का भाव कि आत्म-उत्थान व कल्याण के लिए गुरु पूर्णिमा का दिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी अति उत्तम है।

प्राचीन काल में गुरु पूर्णिमा का दिन एक विशेष दिन के रूप में मनाया जाता था। इस दिन केवल उत्सव नहीं, महोत्सव होता था। गुरुकुल से सम्बन्धित दो सबसे मुख्य कार्य इसी दिन किए जाते थे। पहला- गुरु पूर्णिमा के शुभ-मुहुर्त पर ही नए छात्रों को गुरुकुल में प्रवेश मिलता था। यानी गुरु-पूर्णिमा दिवस Admission Day (छात्र प्रवेश दिवस) हुआ करता था। सभी जिज्ञासु छात्र इस दिन हाथों में समिधा लेकर गुरु के समक्ष आते थे। प्रार्थना करते थे- ‘हे गुरुवर, हमारे भीतर ज्ञान-ज्योति प्रज्वलित करें। हम उसके लिए स्वयं को समिधा रूप में अर्पित करते हैं।’ दूसरा- गुरु पूर्णिमा की मंगल बेला में ही छात्रों को स्नातक उपाधियाँ प्रदान की जाती थीं। यानी गुरु पूर्णिमा दिवस Convocation Day (दीक्षांत दिवस) भी होता था। जो छात्र गुरु की सभी शिक्षाओं को आत्मसात कर लेते थे और जिनकी कुशलता व क्षमता पर गुरु को संदेह नहीं रहता था; उन्हें इस दिन प्रमाण-पत्र प्राप्त होता था। वे गुरु-चरणों में बैठकर प्रण लेते थे- ‘गुरुवर, आपके सान्निध्य में रहकर, आपकी कृपा से हमने जो ज्ञान अर्जित किया है, उसे लोक-हित और कल्याण के लिए लगाएँगे।’ अपने गुरुदेव को यह दक्षिणा देकर छात्र विश्व-प्रांगण में यानी अपने कार्य-क्षेत्र में उतरते थे।

अत: प्राचीन काल में गुरु-पूर्णिमा के दिन गुरुकुलों में गुरु का कुल (अर्थात् शिष्यगण) बढ़ता भी था और विश्व में फैलता भी था। पूर्ण गुरु की पहचान को उजागर करते हुए वैदिक ग्रंथों में, ‘होमा’ नाम के एक पक्षी का वर्णन मिलता है। वर्णन के अनुसार यह पक्षी बहुत ही अलौकिक है। यह सदा आकाश की अनंत ऊँचाई पर उड़ता रहता है। ब्रह्माण्ड के ऊँचे मंडलों में विहार करता है। वेद कहते हैं, यह पक्षी आकाश में ही अंडे देता है। इतनी ऊँचाई से कि अंडे नीचे गिरते समय धरती को छूने से पहले ही फट जाते हैं। उनमें से नवजात पंछी निकल आते हैं। ये नन्हे होमा अपनी माँ की पुकार पर झट पंख खोलते हैं और ऊपर अपनी माँ की ओर उड़ने लग जाते हैं। ग्रंथों व महापुरुषों ने इस उपमा को एक पूर्ण गुरु के लिए प्रयोग किया है। सतगुरु स्वयं भी आकाश के ऊँचे मंडलों में विहार करते हैं और अपने शिष्यों को भी ऊँचे मंडलों में उड़ान भरना सिखाते हैं। वे सीधा ‘ब्रह्मज्ञान’ की दीक्षा देकर शिष्य को ‘दूसरा’ या आध्यात्मिक जन्म देते हैं। उसी समय, दीक्षाकाल में ही, उसकी दिव्य दृष्टि खोल देते हैं। उसे प्रकाश स्वरुप ईश्वर और उनके दिव्य स्वरुप का साक्षात् दर्शन कराते हैं| उसके अंदर पारलौकिक अंतर्जगत को प्रकट कर देते हैं| शिष्य स्वयं गद्गद होकर बताता है- ‘मैं यह देख रहा हूँ!… मैं यह अनुभव कर रहा हूँ!… मैं यह दिव्य नाद सुन रहा हूँ!…’ उसी पल से शिष्य अपने अंतर्जगत के अलौकिक मंडलों में विहार करने लगता है|

इतिहास के सभी संतों, महापुरुषों और गुरुओं ने भी यही मत रखा है| संत दादू दयाल जी कहते हैं- जब मुझे श्री सद्गुरु मिले, तो उन्होंने मुझे ज्ञान-दीक्षा का प्रसाद दिया| दीक्षा के समय ही गुरुदेव ने मेरे मस्तक पर अपना हाथ रखा और मुझे वह अगम-अगाध ईश्वर दिखा दिया| संत पलटू साहिब जी कहते हैं-

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