आईये जानते हैं देवी माँ को जानने की शाश्वत विधि : आशुतोष महाराज

0
2480
Spread the love
Spread the love

New Delhi News, 06 April 2019 : आज हम अनेक मनभाए तरीकों और पद्धतियों से माँ जगदम्बा का भजन-पूजन कर रहे हैं- कीर्तन! जगराता! तीर्थ यात्रा! व्रत-उपवास! ज्योति-प्रज्वलन! आरती! निःसन्देह, ये सारी विधियाँ माँ के प्रताप को समाज में प्रतिष्ठित करती हैं। माँ की महिमा-गरिमा बढ़ाती है। परन्तु क्या ये पद्धतियाँ हमारी मईया रानी को पूर्ण प्रसन्न भी करती हैं? यह जानने के लिए, जरूरी है कि हम ‘माँ को’ मानने के साथ-साथ ‘माँ की’ भी मानें। माँ क्या कहती हैं? कौन सा विधि-विधान उन्हें भाता व प्रसन्न करता है? उनके अनुसार ज्ञान-भक्ति क्या है व उसकी शाश्वत विधि क्या है? आइए, माँ की वाणी में, माँ से ही जानें।

देवी पुराण में एक कथा वर्णित है। गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मेना ने देवी दुर्गा की उग्र तपस्या की। उनकी अभिलाषा थी कि साक्षात् ब्रह्मस्वरूपा देवी उनके यहाँ पुत्री-रूप में जन्म लें। उन दोनों के तप से प्रसन्न हो, माँ उनके समक्ष एक विराट ज्योतिपुँज के रूप में प्रकट हुईं। देखते-ही-देखते, यह महापुँज एक मनोहर कन्या के रूप में साकार हो गया। देवी का यह दिव्य-दर्शन करके हिमालय की आँखें डबडबा आईं। वे आद्र स्वर में बोले- ‘कहाँ तो मैं एक जड़, कहाँ तुम सत् व चिन्मयी भगवती! हे परमेश्वरी! मुझे भक्ति-मुक्ति-योग, स्मृति सम्मत ज्ञान की प्राप्ति कराओ।’ हिमालय की यह हार्दिक प्रार्थना सुनकर माँ उन्हें श्रुतियों के गुप्त रहस्य को प्रकट करने को उद्यत हो गईं। देवी और राजा हिमालय का यह वार्त्तालाप-प्रसंग ‘भगवती गीता’ के नाम से विख्यात है और देवी पुराण में दर्ज है। आप देखेंगे कि यह संवाद ठीक श्री कृष्ण व अर्जुन के गीता-संवाद की तरह ही प्रवाहित होता है।
माँ जगदम्बे हिमालय के समक्ष अपने तत्त्व स्वरूप का रहस्य उजागर करते हुए कहती हैं- ‘मैं शाश्वत ज्ञान की मूर्ति हूँ। न मैं तीर्थों में, न कैलास में, न बैकुण्ठ में ही निवास करती हूँ। मैं तो अपने ज्ञानी-भक्तों के हृदय-कमल में ही रहती हूँ। वास्तव में, मैं साक्षात् ब्रह्मस्वरूपा हूँ। मैं वही निर्मल व निष्कल ब्रह्म हूँ, जो- हिरण्मये परे कोशे विरजं… – परम प्रकाशमय परकोश अर्थात् आंतरिक दिव्य धाम में विराजित है।’

यह सुनकर हिमालय माँ के श्री चरणों में विनती करते हैं- ‘परन्तु माँ! मैं मेरे भीतर समाए आपके इस दिव्य प्रकाशमय ब्रह्मस्वरूप को कैसे जानूँ? मुझे मार्ग दिखाइए!’

उत्तरस्वरूप माँ कहती हैं- ‘हे हिमालय मेरे उस शुभ्र, सर्वथा विशुद्ध और परम प्रकाशमय स्वरूप को केवल आत्मज्ञानी या ब्रह्मज्ञानी पुरुष ही जान सकते हैं।’

देवी भागवत पुराण आगे बताता है- जब राजा हिमालय ने यह जाना कि देवी ब्रह्मप्रकाश रूप में उनके भीतर ही विद्यमान हैं और ब्रह्मज्ञान द्वारा ही जानी जा सकती हैं, तो उन्होंने सच्ची जिज्ञासा की।

गिरिराज हिमालय ने देवी को बारम्बार प्रणाम करके, हाथ जोड़कर ब्रह्मविज्ञान के विषय में जिज्ञासा की- ‘हे माँ- आप मुझे कृपापूर्वक उस उत्तम ब्रह्मविद्या का ज्ञान दें। हे विश्वेश्वरी! आपको नमस्कार है। कृपा कर आप मुझे ब्रह्मज्ञान देकर अपने परात्पर भगवती ब्रह्मस्वरूप का दर्शन कराएँ।’
गिरिराज हिमालय ने माँ से जब ब्रह्मज्ञान या दिव्य-दर्शन की प्रार्थना की, तो देवी माँ बोलीं- ‘हे राजन्! मैं आपको दिव्य चक्षु प्रदान करती हूँ। आप उससे मेरे ऐश्वर्यशाली रूप का दर्शन कीजिए।’

इतना कहकर देवी माँ ने राजा हिमवान को अपने अलौकिक माहेश्वररूवरूप के दर्शन कराए। उनका वह ज्योतिर्मय रूप करोड़ों चन्द्रमाओं की प्रभा से युक्त था।

इसके पश्चात् देवी भगवती ने कहा- ‘हे पर्वतश्रेष्ठ! तुमने जिस ब्रह्मज्ञान के सम्बन्ध में जिज्ञासा की थी, मैंने वह तुम्हें प्रदान किया।’

ब्रह्मज्ञान प्रदान करने के बाद माँ ने हिमालय को इसकी प्राप्ति के लाभ भी बताए- ‘हे राजन्! उस कारणरूप पारब्रह्म का दर्शन कर लेने पर जीव के हृदय की गांठ खुल जाती है। सारे संशय नष्ट हो जाते हैं और शुभाशुभ कर्म क्षीण होने लगते हैं। ब्रह्मज्ञान द्वारा साक्षात्कार कर लेने के बाद साधक मुझमें ही प्रवेश कर जाते हैं।’

अंत में देवी बोलीं- ‘इसलिए मेरा तो यही परामर्श है- मोक्षार्थी साधक यानी जो मुझे प्राप्त या प्रसन्न करने की भावना रखते हैं, वे निरन्तर आत्मज्ञान अर्थात् ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की कोशिश करें।’

गिरिराज हिमालय के युग में तो देवी माँ उनके यहाँ साक्षात् मानवीय पुत्री के रूप में प्रकट हुई थीं। उसी देहधारी स्वरूप में उन्होंने हिमालय को यह ब्रह्मज्ञान की दीक्षा दी। परन्तु आगे आने वाले युगों में, उनके भक्त व जिज्ञासु इस ब्रह्मज्ञान की दीक्षा कैसे पाएँगे- यही विचार कर माँ ने स्पष्ट मार्गदर्शन किया- ‘मेरे तत्त्वरूप का दर्शन कराने वाले इस ब्रह्मज्ञान को एक पूर्ण सद्गुरु से प्राप्त करो। इस बात को समझो कि जिन सद्गुरु के द्वारा इस ब्रह्मविद्या का ज्ञान दिया जाता है, वे परमेश्वर स्वरूप ही हैं। निःसन्देह, इस ब्रह्मज्ञान का ऋण चुकाया ही नहीं जा सकता| इसलिए एक शिष्य सदा-सदा गुरु का ऋणी ही रहता है।’

हे मातृ-भक्तों! माँ जगदम्बा ने अपने प्राकट्य काल में संसार को जो उपदेश दिए, हम उनका तन-मन से पालन करें। माता रानी के कहे अनुसार पूर्ण सद्गुरु से ‘ब्रह्मज्ञान’ की दीक्षा प्राप्त करें। माँ जगदम्बे का दिव्य-दृष्टि के द्वारा साक्षात् दर्शन करें। तभी माँ सच्चे अर्थों में प्रसन्न होंगी और हमारी आत्मा की जन्म-जन्मांतरों की मुराद पूरी होगी। जय माता दी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here