आईए स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगनाओं के शौर्य और वीरता को श्रद्धांजलि अर्पित करें : आशुतोष महाराज 

0
1091
Spread the love
Spread the love

New Delhi, 14 Aug 2002 : 15 अगस्त- हर साल जब भी यह दिन आता है, तो हमारे स्मृति पटल पर कुछ नाम, कुछचे हरे उभर आते हैं। जैसे- भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय आदि। ये वे क्रांतिकारी वीर योद्धा हैं, जिन्होंने अपनी जान की बाज़ी लगाकर भारत को गुलामी की बेड़ियों से आज़ाद कराया था। इन देश-भक्तों के शौर्य और बलिदानों की गाथाएँ हम आज सदियों बाद भी गाते हैं। लेकिन इन यादों में कहीं बहुत पीछे छूट जाती हैं भारत की महान वीरांगनाएँ! वे क्रांतिकारी नारियाँ, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में एक अहम भूमिका निभाई थी। हर कदम पर साहस ओर निर्भीकता का अद्भुत परिचय दिया था। आइए, आज हम उन महान वीरांगनाओं को भी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनके शौर्य और वीरता के नगमे पढ़ते हैं, जिन्होंने नारियों की एक नई छवि समाज के समक्ष रखी।

जिन्दादिली व साहस का अनूठा संगम- सरोजिनी नायडू
भारत माता की जय! भारत माता की जय! इन नारों की गूँज के साथ सत्याग्रहियों का समूह आगे बढ़ता जा रहा था। चलते-चलते सब लोग एक स्थान पर आकर रुक गए। चारों दिशाओं से और लोग भी इस समूह में आ जुड़े। नेताओं ने क्रांतिकारी भाषण देने
शुरु किए। पर कुछ हो पलों में इन स्वरों को दबाने के लिए पुलिस की गाड़ियाँ वहाँ आ पहुँची। पुलिस अधिकारी ने समारोह स्थगित करने का आदेश दिया। पर सत्याग्रही अपने स्थान पर डटे रहे। अगला आदेश लाठी चार्ज का दे दिया गया। दर्जनों पुलिस वाले एक साथ लाठियाँ बरसाने लगे। बच्चे, बूढ़े, महिलाएँ- किसी की परवाह नहीं की। दूसरी ओर सत्याग्रहियों ने भी इन लाठियों की परवाह नहीं की। हारकर पुलिस के पास एक ही रास्ता बचा। जितनों को गाड़ियों में भरा जा सका, उन्हें जेल ले जाकर बंद कर दिया गया। सत्याग्रह आंदोलन के समय भारत की सड़कों पर ऐसे दृश्य अक्सर देखने को मिलते थे। लेकिन एक दिन एक अंग्रेज़ पत्रकार ने एक विचित्र सी बात देखी। उस दिन पुलिस सब सत्याग्रहियों को खोज-खोजकर जेल में डाल रही थी। ऐसे में भी, खद्दर की साड़ी पहनी हुई एक सत्याग्रही महिला सड़क के किनारे खड़ी थी। बिल्कुल सहज और शांत भाव से! न कोई डर, न कोई परेशानी! दरअसल, वहाँ पुलिस की गाड़ी का इंतजार कर रही थी- जो आए और उसे बंदी बनाकर जेल में डाल दे। खड़े-खड़े जब कुछ पल बीत गए, तब उसने वहाँ से गुज़रते परिचित को कुर्सी लाने को कहा। जब कुर्सी आ गई, तो उसने उसे फुटपाथ पर रखा और आराम से उस पर बैठ गई। आनंद से बड़ी देर तक कुर्सी पर झुलती रही, जब तक पुलिस आकर उसे पकड़ कर ले नहीं गई। जिंदादिल, साहसी, जेल की कठिनाइयों से भी बेपरवाह- यह महिला भारत के स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभाने वाली सरोजिनी नायडू थीं। अपने इन्हीं अद्भुत गुणों के चलते, वे बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress) की प्रथम महिला अध्यक्ष बनीं। बुलंद हौसलों की धनी- भीखाजी कामा ‘उठो, आगे बढ़ चलो! हम भारतीय हैं और भारत के लिए हैं। यह झंडा भारत की स्वतंत्रता का ऐलान है। बता दो सबको कि अब यह क्रांति ध्वज जन्म ले चुका है… इसका
तार-तार भारतीयों के लहू में रंग कर पवित्र और पूजनीय बन चुका है। आह्वान है उन सबका जिन्हें स्वतंत्रता प्यारी है कि आओ और इस ध्वज को नमन करो… उसे स्वच्छंद हवा में लहराने के लिए अपना सहयोग दो!’- ये बुलंद स्वर थे भारत की एक महान
क्रांतिकारी नारी के- जिसके दिल में अपनी मातृभूमि के लिए बेइंतहां प्रेम भरा था। जिसके भीतर देश भक्ति की ज्वाला धधकती थी। जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई बुझे हृदयों के लिए जागृति की प्रेरणा बनी। यह क्रांतिकारी वीरांगना थी-भीखाजी
कामा।

सन्‌ 1907… ब्रिटिश सरकार हर तरीके से क्रांति की आवाज़ को दबाने और मिटाने में जुटी थी। स्वतंत्रता-संग्राम के नाम पर किसी की ज़रा सी भी हरकत होती, तो उसे कारागार की निर्मम सलाखों के पीछे पटक दिया जाता! इसी दौरान जर्मनी में एक अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन हुआ। यहाँ विश्व-भर से हजारों प्रतिनिधि आए थे। उनके आगे एक नारी ने भारत का राष्ट्रीय ध्वज, जिस पर वंदे मातरम्‌ अंकित था फहराया और पूर्ण स्वराज्य का आह्वान किया। यह निःसन्देह हतप्रभ कर देने वाला दृश्य था। यह साहसी कार्य किया था- भीखाजी कामा ने! प्रथम विश्व युद्ध के समय कामा ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। भारतीयों में आज़ादी के लिए जागृति के बिगुल फूँके। अनेक क्रांतिकारी लेख लिखे, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की अग्नि को और अधिक
प्रज्वलित किया। इनकी क्रांतिकारी गतिविधियाँ ब्रिटिश सरकार को अपने लिए खतरा महसूस हुईं। अतः सरकार ने इन्हें मार देने के षड्यंत्र रचे। लेकिन वे इनसे बच निकलीं। कामा के हौसले ध्वस्त करने में जब कोई युक्ति काम न आई, तो ब्रिटिश सरकार ने उनका
भारत में प्रवेश निषेध कर दिया। लेकिन, जिनके दिलों में देश-प्रेम बसता है, वे चाहे सात समन्दर दूर भी क्यों न हों- अपनी मातृभूमि की सेवा का रास्ता ढूँढ ही लेते हैं। भीखाजी कामा ने भी ऐसा ही किया। उनका पेरिस-स्थित घर क्रांतिकारियों की मदद के लिए बेहद
महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध हुआ। कामा वहाँ से कई वर्षों तक क्रांतिकारियों को धन एवं अन्य सामग्री मुहैय्या कराती रहीं।
वीर सावरकर ने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विषय में लिखने की प्रेरणा इसी निर्भीक क्रांतिकारी नारी से पाई थी! अनेक कठिनाइयों के बावजूद, कामा के उत्साही प्रयासों से यह किताब हॉलैंड में छपी। वहाँ से किसी तरह चोरी-छुपे भारत तक पहुँचाई
गई। कामा ‘वंदेमातरम्‌’ व ‘तलवार’ नामक क्रांतिकारी पत्रिकाओं की प्रकाशक एवं वितरक भी थीं। उन दिनों अंग्रेजों के सख्त कानून एवं पैरवी के बावजूद ये कदम निःसन्देह नारी में निहित बुलंद हौसलों और साहस के प्रमाण थे। 35 साल तक कामा भारत से बाहर रहकर भारत की आज़ादी के लिए लड़ती रहीं। यूरोप और अमरीका में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम हेतु जागरूकता लाने में जो कार्य भीखाजी कामा ने किया- वह अतुलनीय तथा सराहनीय है। स्वतंत्रता संग्राम में अहम्‌ भूमिका निभाने के साथ-साथ
नारियों के सम्मान, उनके महत्त्व तथा उनके शौर्य को समाज में एक विशेष स्थान दिलाने में भीखाजी कामा का योगदान हमेशा याद किया जाएगा।

जिसने अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए- अरुणा आसफ अली
एक हिन्दू-बंगाली परिवार में जन्मी अरुणा का नाम उन वीरांगनाओं में शामिल है, जिन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। फिरंगियों को देश से बाहर खदेड़ने में अरुणा ने हर मौके पर निर्भयता से आवाज़ उठाई। अरुणा की क्रांतिकारी गतिविधियाँ
मुख्यतः सन्‌ 1930 से शुरू हुईं, जब उन्होंने नमक सत्याग्रह आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इसमें उन्होंने कई मोर्चों का नेतृत्व संभाला, जिस कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
सन्‌ 1932 में, इन्हें फिर गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। वहाँ जब इन्होंने भारतीयों के साथ होता अत्याचार देखा, तो इनका खून खौल उठा। इन्होंने भूख हड़ताल करने का निश्चय किया। भूख हड़ताल- वह भी एक महिला द्वारा- जेल अधिकारियों ने इस बात को कई तूल नहीं दी। पर उन्हें क्या मालूम था कि यह हड़ताल एक चिंगारी का काम करेगी। यह चिंगारी बढ़ते-बढ़ते इतनी भड़क गई कि जेल प्रशासन को भारतीय कैदियों के प्रति अपना रवैय्या बदलना पड़ा। स्थिति में कई तरह के सुधार लागू किए गए। दूसरे और किसी मुद्दे पर अरुणा की आवाज़ जेल के भीतर न उठ सके, इसके लिए उन्हें अम्बाला में निर्जन कारावास (solitary confinement) में भेज दिया गया। जेल से रिहा होने पर भी, इतनी यातनाएँ सहने पर भी, इस वीरांगना के हौसले पस्त
नहीं हुए। बल्कि उनमें और उफान आ गया। सन्‌ 1942 में, कांग्रेस समिति के बम्बई सत्र में, भारत छोड़ो आंदोलन के प्रस्ताव के पास होने के बाद लगभग सभी नेताओं को हिरासत में ले लिया गया। ऐसे में अरुणा ने अपने साहसी कदम बढ़ाए और शेष सत्र की
अध्यक्षता की। मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में झंडा फहरा कर अरुणा हज़ारों युवाओं के लिए अनूठी प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुईं। इससे ब्रिटिश सरकार आग बबूला हो गई और अरुणा की सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गई। यहाँ तक कि उनकी गिरफ़्तारी के लिए
5000 रुपयों की बड़ी रकम के ईनाम की घोषणा भी कर दी गई। लेकिन अरुणा अपने मिशन में पूरी तरह जुटी रहीं। अपने क्रांतिकारी योगदान के चलते अरुणा सन्‌ 1942 के आंदोलन की मुख्य वीरांगना कहलाईं। यही अरुणा फिर आगे चलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ‘ग्रैंड ओल्ड लेडी’ (महान वरिष्ठ महिला) के नाम से भी प्रसिद्ध हुईं। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here