New Delhi, 28 Oct 2020 : आँसू जल है। आग तपन है। आँसू तरल है। आग ज्वाला की लपटें हैं। भला दोनों का संगम संभव है? आँसू आग से मिलेंगे, तो सूख जाएँगे। आग आँसू से मिलेगी, तो बुझ जाएगी। दोनों की मैत्री भला कैसे हो सकती है?आँसू और आग का ऐसा ही संगम थी- मीरा! एक अद्भुत साधिका! आँसू उसमें संवेदना जगाते थे। प्रेम बेल को सींचते थे। आग उसमें क्रांति भड़काती थी। अन्याय-अनाचार-कुरीतियों के विरुद्ध प्रचण्ड हौसला भरती थी।हाँ,ऐसी ही थी मीरा! बंद कक्ष में जिसकी आँखों से झर-झर सावन बरसते थे। ‘जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाहीं तोडूँगी; तोसे तोड़ मोहन कौन संग जोडूँगी…’- जिसकी आहों से ऐसे दर्दीले तराने रिसते थे; वही मीरा, समय आने पर क्रांति की मशाल बनकर प्रज्वलित हो उठी! घटना उस समय की है, जब मीरा राजा भोजराज से ब्याहने के बाद चित्तौड़ पहुँची। मंगल गीत हवाओं में झूल रहे थे।शहनाइयों कीगूँज मिश्री घोल रही थी। लगभग सारा चित्तौड़ स्वागत द्वार पर पलक-पावड़े बिछाए खड़ा था। राजघराने के समस्त सदस्य- उदय सिंह, विक्रमजीत, उदाबाई पुष्प-पंखुडियाँ बरसा रहे थे। पर इस बसंत ऋतु को सावन में बदल रही थी- मीरा के अश्कों की झड़ी, जो लगातार बरसती ही जा रही थी। हर अश्क पर यही लिखा था- ‘जाके सिर मोर मुकुट,मेरे पति सोई।’ हर आती-जाती श्वांस यही प्रश्न पूछ रही थी- ‘कृष्ण, तुमने मीरा को विस्मृत क्यों कर दिया?’ इन्हीं विरही भावों के बीच से मीरा को राजमंदिर में ले जाया गया। चित्तौड़वासी अपनी नववधु को निहार-निहार कर हर्षित हो रहे थे।इन्हीं मंगल चर्चाओं के बीच राज पुरोहित राज माता की ओर बढ़े। उनके हाथ में एक रत्नजड़ित कटार थी। समीपआकर वे बोले- ‘महारानी जी, बलि हेतु पशु तैयार हैं।’राजमाता के मात्र एक हाथ को दूरी पर खड़ी थी, मीरा। उसके कानों में स्पष्ट स्वर पड़े- ‘पशु बलि!’मीरा सक्रिय-सी हो उठी। नवविवाहिता का लज्जा-भार भी उसे दबा न पाया। भारी घूँघट भी सिर को झुका न सका। मीरा प्रज्वलित शिखा-सीएकदम चमक उठी और बोली- ‘बलि! बलि कैसी माँ-सा?’
राजमाता- मीरा,ये तो हमारे चित्तौड़ राजघराने की सदियों पुरानी परम्परा है। यहाँ नववधु के शुभ हाथों से ही महाप्रसाद बनता है।
मीरा- महाप्रसाद और पशु बलि?भला, ये कैसी परम्परा हुई? हम इसे नहीं मानते। आखिर, निर्दोष पशुओं की बलि देना तो महापाप है।
उदाबाई- भाभी-सां,अब आप जो करेंगी, हमारे परिवार के रीति-रिवाज़ों के अनुसार ही करेंगी।
मीरा- पुरोहित जी,आप ही बताएँ,क्या पशु-पक्षी जीवंत जीव नहीं हैं?फिर क्या उन्हें दर्द नहीं होता? उनसे आह नहीं उठती होगी?
राज पुरोहित-परन्तु बहुरानी, इन जीवों को जीवन देने वाले को ही तो समर्पित किया जा रहा है। पशु-बलि हम अपने लिए नहीं,ईश्वर की प्रसन्नता पाने के लिए कर रहे हैं।
मीरा- क्या बात करते हैं,पुरोहित जी! यह कैसा तर्कहीन तर्क है! भला निर्दोष जीवों की हत्या से, उन्हें असहनीय कष्ट देकर उनके प्राणों को हर लेने से- जो उनका प्राणाधार ईश्वर है, सृष्टि कारचयिता, सबका दयालु पिता है- वह प्रसन्न हो जाएगा?अरे, जिन भगवान शिव की पूजा हम अपने मंदिरों में करते हैं,उनका तो नामही है- ‘पशुपतिनाथ’- पशुओं की पत अर्थात् रक्षा करने वाले!यही नहीं,देवालयों में जितने भी देव-देवियाँ हैं, उन सबके वाहन पशु ही तो हैं। देवी सरस्वती का वाहन है- हंस; गणपति देव का वाहन है- मूषक; देवी दुर्गा का वाहन है- सिंह; भगवान शिव बैल की और भगवान विष्णु गरुड़ की सवारी करते हैं। भगवान नारायण ने तो बहुत बार अवतार भी पशु रूप में ही धारण किया- कभी मत्स्य, कभी कच्छप और कभी वराह!… कहते हैं, समझदार को एक इशारा ही काफी होता है। पर परमात्मा ने तो हमें कितने सारे संकेतों से बताया कि पशु उसी रचना के अभिन्न अंग हैं और उसे अत्यंत प्रिय हैं। फिर उसके प्रियों को मारने से वो भला हमसे प्रसन्न कैसे हो सकता है, पुरोहित जी?
राज पुरोहित- हुं! दर्शन-शास्त्र पर अच्छा भाषण दे लेती हो, बहुरानी! पर यह नहीं जानती कि ऐसा कहकर तुम महाप्रसाद का अपमान कर रही हो! क्षत्रियों का तो पशु-मांस ही महाप्रसाद होता है।
मीरा- ‘प्रसादस्तु प्रसन्नता’। जिससे तन-मन और आत्मा को प्रसन्नता मिले,वही महाप्रसाद है। ऐसा महाप्रसाद तो केवल प्रभु का भजन है, पुरोहित जी। असली महाप्रसाद प्रभु की, संतों कीसेवा है, माँ-सा। मेरे कन्हैया का प्रेम, कन्हैया का दर्शन ही प्रसादों का प्रसाद- महाप्रसाद है!
उदाबाई़- बस भाभी-सां,बहुत हो गया!! आपका यह क्रांतिकारी उपदेश सुनकर हम अपने पुरखों की परंपराओं की बलि नहीं चढ़ासकते। इसलिए पशु-बलि तो आज होकर रहेगी।
मीरा(निर्भीक स्वर में)- जीजी, यदि बलि चढ़ानी ही है, तो आओ हम अपने भीतर बैठे पशु की बलि चढ़ा डालें! अपने पशुवत् अज्ञान की, अहंकार की बलि चढ़ाएँ। सच में, जीजी, यदि आज बलि चढ़ानी ही है न, तो आओ इस पशु-बलि नामक कुरीति कीही बलि चढ़ा दें।
इतना कहकर मीरा पूजा-स्थल को छोड़कर चलीजाती है और उस घोर प्रथा को सम्पन्न नहीं करती।निःसन्देह प्रभु-प्रेम की शक्ति निर्भीक बना देती है।भक्त की चेतना को इतना जगा देती है कि वह अपने क्रांतिकारी बुलंद स्वरों से सोए हुए समाज को झकझोरने की ताकत रखता है। यहाँ हमें गुरुदेव आशुतोष महाराज के ओजस्वीवचन याद आते हैं। एक बार आपको कहते हुए सुनाथा- ‘जिसके होठों से विरही गीतों की तरन्नुम नहीं उठी,वह कभीभी सच्ची क्रांति के अंगारे नहीं उगल सकता। जिसने भाव दशाको नहीं चखा,वह कभी भी समाज की दशा को नहीं सुधारसकता। प्रेम में बहते आँसू भक्त को कमज़ोर नहीं बनाते; बल्किउसमें नवक्रांति के लिए ईंधन भर देते हैं। ऐसी क्रांति जिसमें जोश के साथ होश भी रहता है। आकाश की ऊँचाई केसाथ-साथ समुद्र सी गहराई भी होती है।’भावनाओं की स्याही से ही, तामीर होगी नए युग की। जो मरकर जीना सीख लेंगे, परिवर्तन लाएगी सेना… उन्हीं मरजीवड़ों की।