New Delhi News : तीनों लोकों की देवी- त्रिभुवनेश्वरी! वरदानों की दात्री- वरदा! चक्र धारणकरने वाली- महाचक्रधारिणी! बुरी वृत्तियों का नाश करने वाली- दुर्गतिनाशिनी! दुर्ग के समान ढाल बनकर अपने भक्तों की रक्षा करने वाली– माँदुर्गा! माँ को दश प्रहरणधारिणी की संज्ञा भी दी गई है। कारणकि उनकी दस भुजाओं में दस शस्त्र/वस्तुएँ हैं, जो सांकेतिक भी हैं औरअर्थपूर्ण भी! माँ दुर्गा के हाथ मेंशंख-एक ओर, बाहरीजगत में माँ दुर्गा के प्रकटीकरण से बुराई के अंत का उद्घोष है| वहीं, शंखआंतरिक जगत में गूँजते शाश्वत संगीत का भी प्रतीक है। वह अनहद नाद, जिसे एकब्रह्मज्ञानी साधक अपने भीतर ही सुन पाता है, जब वह पूर्ण गुरु कीज्ञान-दीक्षा से माँ के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है।
कमलआंतरिक जगत में अमृत का द्योतक है। वहीं, बाहरीपरिवेश में, माया-रूपी कीचड़ में रहते हुए भी, सूर्य-उन्मुख यानीईश्वरोन्मुख रहने की शिक्षा देता है- कमल।खड्गप्रतीक है विवेक का।खड्ग की तेज़ धार मूलतः विवेककी धार की ओर इशारा है, जिससे किसी भी विकट समस्या अथवा अड़चन से उत्तम ढंगसे निबटा जा सकता है।तीर एवं धनुष– दोनों ही ऊर्जा की ओर संकेत करते हैं।वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने पर कहा जा सकता है कि धनुष स्थितिज ऊर्जा (potential energy) का सूचक है और तीर गतिज ऊर्जा (kinetic energy) का।दोनों के समन्वय से, सामूहिक प्रयास से लक्ष्य को भेदा जा सकता है। भक्तिपथ पर यह ‘स्थितिज ऊर्जा’ साधना से अर्जित की गई ऊर्जा की ओर इशारा है।वहीं, सेवा के माध्यम से मिलने वाली ऊर्जा ‘गतिज ऊर्जा’ है। भक्ति पथ केलक्ष्य यानी ईश्वर तक सेवा-साधना के संगम से ही पहुँचा जा सकता है।
त्रिशूलआदिदैविक, आधिभौतिक अथवा आध्यात्मिक- तीन तापोंकी और संकेत करता है| जीवन-पथ में आने वाले इन तीनों प्रकार के तापों काहरण करने वाली हैं माँ! जो साधक माँ को तत्त्व से जान लेते हैं, फिर वो इनतीनों तरह के दुःखों से ऊपर उठकर आनंद में विचरण करते हैं।गदासंहार की सूचक है जो दुर्जनों का नाश करती है। साथही, आंतरिक क्षेत्र में गदा उस आदिनाम का प्रतीक है, जो इस संपूर्ण सृष्टिकी सबसे शक्तिशाली तरंग है। जो व्यक्ति इस आदिनाम से जुड़ जाता है, वह फिरअपने लक्ष्य के मध्य आने वाले सारे दुर्जनों अथवा दुष्प्रवृत्तियों कासफलतापूर्वक संहार कर पाता है।वज्रशक्ति का द्योतक है। भीतरी जगत में माँ का यह शस्त्रआत्मिक शक्ति की ओर संकेत करता है। जिस प्रकार वज्र का प्रहार खाली नहींजाता; उसी प्रकार जो व्यक्ति आत्मिक जागृति के उपरान्त, आंतरिक शक्ति सेभरपूर हो जाता है- वह भी फिर प्रत्येक चुनौती में विजयी होकर ही निकलता है।
सर्पचेतना के ऊर्ध्वगामी होने को दर्शाता है, जोकुण्डलिनी के रूप में मूलाधार चक्र में स्थित होती है। जब एक व्यक्ति केभीतर आत्मा के प्रकाश (माँ के वास्तविक स्वरूप) का प्रकटीकरण होता है, तबचेतना का विकास होता है। वह मूलाधार चक्र से सहस्रदल कमल यानी अमृतकुंड तककी यात्रा कर पाती है।अग्निप्रतीक है आत्मा के प्रकाश की, जो माँ का तत्त्वस्वरूप है। आत्मिक जागृति के उपरांत साधक के अंतःकरण से अज्ञानता का अंधकारछटने लगता है।
माँ दुर्गा के असली दर्शन व उनका वंदन न तो बाहरी जगत में और न ही कंप्यूटरस्क्रीन पर होता है। यह तो अंतर्जगत में उतरकर किया जाता है।यही संदेश माँ का स्वरूप व उनके अस्त्र-शस्त्र भी हमें दे रहे हैं। अतः यदिहम सचमुच माँ के भक्त हैं और उनकी प्रसन्नता व कृपा के पात्र बनना चाहतेहैं, तो एक तत्त्ववेता महापुरुष की शरण में जाएँ। उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्तकर, अपने भीतर माँ के दिव्य स्वरूप का दर्शन कर, सच्ची दुर्गा पूजा मनाएँ।दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को नवरात्रि पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ।