New Delhi : संपूर्ण भारतवर्ष में ‘महा-शिवरात्रि’ का त्यौहार आस्था के महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस दिन अमूमन तौर पर भक्त-श्रद्धालुगण बड़ी संख्या में शिवालयों में उमड़ते हैं और शिवलिंगों की धूप-दीप, बेलपत्र, दूध मिश्रित जल आदि नैवेद्य से विधिपूर्वक उपासना करते हैं। हर साल हम इसी तरह परम्परागत ढंग से, रीति-रिवाज़ों के साथ ‘महाशिवरात्रि’ मनाते हैं और हर्षित होते हैं। लेकिन इस उत्सव की धूमधाम में हम पर्व की सूक्ष्म और सच्ची धुन को नहीं सुन पाते। भगवान शिव और उनसे जुड़े हर पहलू में एक गूढ़ तत्त्व है, एक मार्मिक प्रेरणा है, जो बहिर्जगत नहीं, अंतर्जगत से हमें जोड़ती है।
महाशिवरात्रि का पर्व हमारे समक्ष मूल प्रश्न लेकर आता है- देवाधिदेव भगवान शंकर कहाँ मिलेंगे? शिव मंदिर में? शिवालयों में? अमरनाथ पर? काशी में? अपने भोले बाबा को पाने के लिए कहाँ जाएँ? क्या करें? क्या यह संभव भी है?
इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान शिव के सहस्र नामों में से कुछ विशेष दिव्य नामों में निहित दिव्य संकेतों से मिलता है। कोटिरुद्रसंहिता के अध्याय-35 में सूत जी समझाते हैं कि भगवान शिव के ‘शैवं नामसहस्र कम्’- हजारों नाम हैं। उन्हीं में से एक है-‘वेद्यः’ अर्थात् जानने योग्य। अन्य है-‘विज्ञेयः’ अर्थात् जिन्हें जाना जा सकता है। भाव निःसन्देह भगवान शिव को जानना अर्थात् पाना संभव है। अब प्रश्न उठता है कि उन्हें किस प्रकार जाना जा सकता है। उनका एक नाम है- ‘ज्ञानगम्यः’ अर्थात् जिन्हें ‘ज्ञान’ के द्वारा ही जाना या अनुभव किया जा सकता है। शिव पुराण की रुद्रसंहिता के अध्याय-43 में स्वयं महादेव शंकर प्रजापति दक्ष से कहते हैं-‘वेद-वदांत के पारगामी विद्वान ज्ञान के द्वारा मुझे जान सकते हैं। जिनकी बुद्धि मंद है, वे ही मुझे ज्ञान के बिना पाने का प्रयत्न करते हैं।’ यहाँ भगवान शिव ‘ज्ञान’ कहकर ‘ब्रह्मज्ञान’ या ‘आत्मज्ञान’ को संबोधित कर रहे हैं।
ब्रह्मज्ञान या आत्म-ज्ञान की दीक्षा पाने पर महादेव एक साधक के समक्ष प्रकट हो जाते हैं। इसलिए शिव नामों की श्रृंखला में ये नाम भी वर्णित हैं-‘ध्येयः’, ‘ध्यानाधारः’- जो ध्यान के आधार हैं, माने जिन पर एक साधक ध्यान केन्द्रित कर सकता है; ‘समाधिवेद्य’- जिन्हें साधक समाधि या गहन ध्यान की अवस्था में देखता व जानता है।ब्रह्मज्ञान से भगवान का ध्येय स्वरूप साधक के अंतर्हृदय कमल में प्रकट होता है। तभी भगवान शिव को इन नामों से भी पुकारा गया- ‘हृत्पुण्डरीकमासीनः’ अर्थात् आकाश (आंतरिक हृदय) में मणि के समान प्रस्फुटित।
वैसे तो महादेव शिव सगुण व निर्गुण, दोनों ही रूपों में विराजमान रहते हैं। तभी उनका एक नाम है–‘सकलो निष्कल:’अर्थात साकार एवं निराकार परमात्मा। परन्तु प्रभु का विशेष रूप, जिसमें वे साधक के अंतर्जगत में प्रकट होते हैं वह है- प्रचण्ड प्रकाश ज्योतिर्मय स्वरुप! यही कारण है कि शिव सहस्रनाम स्तोत्र में अनेक-अनेक नाम उनके इसी स्वरूप का वर्णन करते हैं- ‘तेजोमयः’ ‘आलोकः’, ‘हिरण्य’ (सुवर्ण या तेजस्वरूप), ‘स्वयंजोतिस्तनुज्योतिः’ (अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होने वाले सूक्ष्म ज्योति स्वरूप), ‘आत्मज्योतिः’, ब्रह्मज्योतिः’, ‘महाज्योतिरनुत्तमः’ (सर्वोत्तम महाज्योतिस्वरूप), ‘परं ज्योतिः’, ‘भ्रजिष्णुः’ (एकरस प्रकाशस्वरूप), ‘सहस्रार्चिः’ (सहस्रों किरणों से प्रकाशमान) इत्यादि।
अंतर्जगत में भगवान शिव के इस ज्योतिर्मय स्वरूप का दर्शन करने की एक ही युक्ति है।जो ब्रह्मज्ञान द्वारा ही पूरी की जा सकती है। ब्रह्मज्ञान द्वारा न केवल शिव का प्रकाश-तत्त्व प्रकट होता है, बल्कि उसका दर्शन करने के लिए साधक का ‘ज्ञाननेत्र’ भी जागृत होता है। ‘ज्ञाननेत्र’ को आप ‘शिवनेत्र’, ‘तृतीय नेत्र’, ‘तीसरी आँख’, ‘दिव्य दृष्टि’ आदि किसी भी नाम से सम्बोधित कर सकते हैं। यह भगवान शिव के मस्तक पर स्थित तीसरे नेत्र की तरह हर साधक के माथे पर होती है, लेकिन सूक्ष्म रूप में। ब्रह्मज्ञान द्वारा इस नेत्र के खुलते ही भगवान शिव का प्रत्यक्ष दर्शन अपने भीतर किया जा सकता है। महादेव के ‘ललाटाक्षः’, ‘भालनेत्रः’, ‘त्र्यम्बकः’ आदि नाम भी हमें यही संदेश देते हैं।
एक तत्त्वदर्शी सद्गुरु ही ब्रह्मज्ञान प्रदान कर सकते हैं और तृतीय नेत्र को खोलने की शक्ति रखते हैं। जीवन में आध्यात्मिक गुरु की इस महत्ता के कारण ही भगवान शिव का एक नाम ‘गुरुदः’ रखा गया। ‘गुरुदः’ अर्थात् जिज्ञासुओं को गुरु की प्राप्ति कराने वाले, जिनकी कृपा से एक भक्त के जीवन में सद्गुरु का पदार्पण होता है।
अतः महाशिवरात्रि के इस पर्व पर हमारी ‘गुरुदः’ (भगवान शिव) से यही प्रार्थना है कि शीघ्रातिशीघ्र हमारे जीवन में भी एक पूर्ण सतगुरु का पदार्पण हो, ताकि उनसे ‘ब्रह्मज्ञान’ व ‘तृतीय नेत्र’ को प्राप्त कर शिव के अलौकिक ज्योतिस्वरूप का भीतर दर्शन कर पाएँ।
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ।