New Delhi News, 27 Nov 2019 : दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा श्रीमद्भागवत कथा ज्ञानयज्ञ का भव्य आयोजन मयूर विहार, फेज-2, दिल्ली में किया जा रहा है। सर्व श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या साध्वी सुश्री वैष्णवी भारती जी ने पंचम दिवस की सभा में प्रभु की बाल लीलाओं को प्रस्तुत किया। उन्होंने नटखट बाल गोपाल श्रीकृष्ण जी की मिट्टी खाने वाली लीला का वर्णन किया। गोवर्धन लीला के रहस्य को हमारे समक्ष बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया। नंद बाबा और गांव की ओर से इन्द्रयज्ञ की तैयारियां चलते देख कर भगवान श्रीकृष्ण उनसे प्रश्न पूछते हैं। उनको गोवर्धन पर्वत तथा धरती का पूजन करने हेतु उत्साहित करते हैं। प्रभु का भाव यह था जो धरती वनस्पति जल के द्वारा हमारा पोषण कर रही है। उसकी वंदना और पूजा करनी चाहिए। उन्होंने गो माता के संरक्षण हेतु प्रत्येक व्यक्ति को जागरूक किया। वेदों के सूक्त, महाभारत में दर्ज अनेकानेक उदाहरण हमें गो माता के सम्मान एवं रक्षण की प्रेरणा देते हैं। विष्णुधर्मोत्तर पुराणों में कहा गया कि गाय की सेवा से आप तैंतीस कोटि देवी-देवताओं को प्रसन्न कर सकते हैं। गो माता के पंचगव्य की बात करें तो उसमें गोमूत्र वैदिक काल से हमारे लिये लाभप्रद माना गया है। 400 से अधिक रोगों का उपचार इसी से संभव है। प्राचीन भारत में किसान बीज भूमि में रोपित करने से पूर्व धरती पर गो मूत्र छिड़क कर उसे स्वच्छ बनाते। इसे गोमूत्र संस्कार कहा जाता था। गाय के दुग्ध को सात्त्विक, मेधशक्ति बढ़ाने वाला, अनेक रोगों को समाप्त करने वाला कहा गया। गाय को मां उसकी आध्यात्मिकता एवं वैज्ञानिकता कारण कहा गया। परंतु अवध्या कही जाने वाली मां को काटा क्यूं जा रहा है? मंगलपांडे जैसे अनेकों वीरों ने जिस गाय की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहुति दी। हमें उसके संरक्षण, संवर्धन के लिये कदम उठाने होगें। धरती का प्रतीक मानकर गोवर्धन पर्वत की पूजा की गई। छप्पन व्यंजनों का भोग भगवान को दिया गया। इन्द्र के अभिमान को ठेस लगी तो उसने सात दिन तक मूसलाधार बारिश के द्वारा गोकुल के लोगों को प्रताड़ित करने का प्रयास किया। परंतु भगवान ने अपनी कनिष्ठिका के उपर धारण कर सभी की रक्षा की। यदि आप भागवत महापुराण का अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि प्रभु ने नंदबाबा सहित ग्रामनिवासियों को कर्म के सिद्धांत का विवेचनात्मक विवेचन किया। कर्म ही मनुष्य के सुख, दुख, भय, क्षेम का कारण है। अपने कर्मानुसार मानव जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। कर्म ही ईश्वर है। हम सभी नारायण के अंश हैं। हम कर्म को यश प्राप्ति के लिये नहीं करते। हम कर्म की उपासना करते हैं। कर्म ही हमारी पूजा है। ‘कर से कर्म करो विधि नाना। चित्त राखो जहां दया निधना’। यह दोहा सुनने में जितना सरल है। व्यवहारिक जीवन में उसे उतारना उतना ही कठिन है। यदि एक पूर्ण गुरु का सान्न्ध्यि प्राप्त हो जाये तो वो घट में ही स्थित प्रभु का दर्शन करवाते हैं। साथ ही साथ श्वांसों में चल रहे हरि के शाश्वत नाम को प्रकट भी करते हैं। यूं तो संसार में भगवान के अनेकों नाम प्रचलित हैं। परंतु मोक्ष का मार्ग भीतरी नाम ही प्रशस्त करता है। भगवान श्रीकृष्ण जी ने कालिया नाग के कल्याण की लीला से हमें सीख दी कि चाहे राजनैतिक समस्या हो, सामाजिक, मानवीय मस्तिष्क की विकृति हो या धर्म के नाम पर समाज में व्याप्त रूढ़िवादितायें हों। ये समस्याएं समाज को कालिया नाग की भांति विषाक्त कर रहीं हो तो उस समय समाज में युवा ही बदलाव लाते हैं। अघासुर की लीला से प्रभु ने बताया कि भोग विषयों के समान हैं जो हमें अपनी ओर खींचते हैं। परंतु ये अपूर्ण हैं। ये अशांति के अतिरिक्त कुछ नहीं दे सकते। अध्यात्म की शरण में जाने से परम शांति की अनुभूति होती है।