श्रद्धा और विश्वास के रंग में आईए खेले सच्ची होली : आशुतोष महाराज

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New Delhi News, 07 Mach 2020 : होली के दिन कोई आपके ऊपर रंग डाले, तो क्याि बुरा मानने वालीबात है? बिल्कुल नहीं। अगर कोईपिचकारी से रंगों की बौछार करे, तो क्या बुरामानने वाली बात है? बिल्कुल नहीं। अगर कोईखुशी में झूमे-नाचे, तो क्या बुरा मानने वाली बात है? बिल्कुल भी नहीं।तभी तो जब गुब्बारा पड़ता है, कपड़े भीगते हैं, अलग-अलग रंगों औरडिज़ाइनों में चेहरे चमकते हैं- तो भी सब यही कहते हैं- ‘भई बुरा नमानो, होली है!’ लेकिन यदि रंग की जगह लोग एसिड फेंकने लग जाएँ… खुशी मेंझूमने की जगह नशे में होशो-हवास खोकर अश्लील और भद्दे काम करनेलग जाएँ… पर्व से जुड़ी प्रेरणाएँ संजोने की बजाए, हम अंधविश्वास औररूढ़िवादिता में फँस जाएँ- तब? तब फिर इस पर्व में भीगने की जगह पर्व से भागना ही बेहतर है।

अपने निजी स्वार्थ के लिए आज हमने त्यौहारों के मूल रूप को ही बर्बाद कर दिया है। हमने मिलावट की सारी हदें पार कर दी हैं। होली के रंगों में अकसर क्रोमियम, सीसा जैसे जहरीले तत्त्व, पत्थर का चूरा, काँच का चूरा, पैट्रोल, खतरनाक रसायन इत्यादि पाए गए हैं। इन मिलावटी रंगों से एलर्जी, अन्य बीमारियाँ, यहाँ तक की कैंसर होने का खतरा भी होता है। अफसोस! जहाँ रंगों से ज़िंदगी खूबसूरत होनी चाहिए थी, वहाँ आज ये जानलेवा बन गए हैं। न केवल होली के रंग स्वार्थ, द्वेष, लोभ आदि विकारों के कारणघातक हुए हैं, बल्कि अंधविश्वास और रूढ़िवादीपरंपराओं ने भी इसपर्व में दुर्गंध घोल दी है।

होली से पहले होलिका दहन का प्रचलन है। यह परंपरा हिरण्यकशिपुकी बहन होलिका के अग्नि-दहन होने और भक्त प्रह्लाद की रक्षा सेआरंभ हुई। दूसरे शब्दों में, यह बुराई के अंत और सच्चाई की जीतकी द्योतक है। परन्तु अज्ञानतावश आज इस परम्परा के साथ लोगों नेअलग-अलग भ्रांतियाँ जोड़ दी हैं। जैसे- मथुरा, राजस्थान आदि क्षेत्रोंमें एक प्रथा है- होलिका दहन के समय, जब आग की लपटें थोड़ी कम हो जाती हैं, तब उसमें से गाँव के कुछ लोग नंगे पाँव चलकर जाते हैं। जो भी उस आग में से सुरक्षित बाहर या जाता है, ऐसा माना जाता है कि उसे भगवान ने बचाया है। अतः गाँववाले उसे प्रह्लाद की संज्ञा दे देते हैं।

कैसी विडम्बना है- कहाँ तो हमें इतिहास के दृष्टांतों के पीछे मर्म को समझना था और कहाँ हमने इनके अर्थ का अनर्थ कर डाला। सबसे पहले तो, प्रह्लाद ने स्वयं जानबूझकर अग्नि में प्रवेश नहीं किया था- यह जाँचने या परखने के लिए कि क्याा भगवान उसे बचा सकते हैं। बल्कि उसे षड्यंत्र के तहत उस धधकती ज्वाला में बिठाया गया था। ऐसे में, प्रह्लाद का दृढ़ विश्वास व सच्ची भक्ति उसके सुरक्षा कवच बने। हमारी तो प्रह्लाद जैसी भक्ति भी नहीं है, फिर भी हम भगवान की शक्ति को परखने चल पड़ते हैं। इस प्रकार की भ्रांतियों के चलते कई बार हादसे भी घट जाते हैं। अतः हमें ऐसी कोई भी धारणा या प्रथा नहीं अपनानी चाहिए, जिससे हमारा या समाज का अहित हो। पर्व तो आनंद और उल्लास के लिए मनाए जाते हैं, न कि खतरनाक करतब करके किसी अनहोनी या दुर्घटना को जन्म देने के लिए।

परम्पराओं के ही नाम पर आज होली के साथभांग-शराब को जोड़ दिया गया है, जिसने इसके चेहरेको और विकृत बना दिया है। लोगों के अनुसारहोली और भांग- दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।कैनाबिस के पौधे से बनने वाली भांग एक नशीला पदार्थ है। वैसे तो भारत में कैनाबिसका सेवन गैरकानूनी है। परन्तु लोगों कीधारणाओं और परम्पराओं के नाम पर प्रशासनभी ऐसे मौकों पर अपनी आँखें मूँद लेता है।बल्कि ऐसी मान्यताओं का खुद भी सहयोगीबन बैठता है। यहाँ तक कि आज भांग कोहोली का अधिकारिक पेय कहकर संबोधित किया जाता है।गाँवों की चौपालों, होली मिलन के कार्यक्रमों और बनारसके घाटों पर, जो भगवान शिव की भूमि कही जाती है-वहाँ भी आपको होली के दिन जगह-जगह लोगों के झुंडदिखाई दे जाएँगे… क्या करते हुए? बड़ी मात्रा में भांग बनाते और पीते हुए।

जहाँ होली का चेहरा समय के साथ और ज़्यादा खराब तथा भयावह होता जा रहा है, वहाँ अभी भी कुछ क्षेत्र, कुछप्रांत और कुछ प्रथाएँ ऐसी हैं, जो इसे खूबसूरत बनाए रखने में प्रयासरत हैं। आइए, अब उनकी बात करते हैं ताकिउनसे प्रेरणा ले सकें।

उत्तरप्रदेश, बंगाल इत्यादि में कुछ जगहों पर आज भीऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं, जहाँ होली को रंग-बिरंगेफूलों से और टेसू के फूलों से बने शुद्ध रंगों से खेला जाताहै। इससे न तो लोगों को किसी प्रकार से हानि पहुँचतीहै, न ही प्रकृति को। इसी तरह दक्षिण भारत के कुदुम्बी तथा कोन्कन समुदायोंमें होली हल्दी के पानी से खेली जाती है। इसलिए वहाँ होली को ‘मंजल कुली’नाम से मनाया जाता है, जिसकामतलब होता है- हल्दी-स्नान! केरल के लोक-गीतों केसंग इस पर्व में सभी लोग शामिल होते हैं। अतः इसप्रकार हल्दी के औषधीय गुणों से खुद को तथा वातावरणको लाभ देते हैं।

निःसन्देह, ऐसे उदाहरण सराहनीय हैं तथा अनुकरणीयभी। ऐसी प्रेरणाओं को अपनाकर हम इस रंगों के पर्व कोफिर से सुन्दर बना सकते हैं। परन्तु होली की वास्तविकखूबसूरती सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। मूल रूप से यहपर्व दिव्यता एवं शुद्धता से परिपूर्ण है। इतिहास के पन्नों सेहमें ऐसे अनेक दृष्टांत मिलते हैं, जो इस त्यौहार की पावनता,अलौकिकता एवं आनंद की गहराई को दर्शाते हैं।

होली ऐसी होती है, जहाँ दिव्य प्रेम की खुशबू है। जहाँ ईश्वर से अंतरंग सम्बन्ध है। जहाँ अंधविश्वास नहीं, बल्कि अनंत विश्वास है। फिर ऐसे अनोखे खेलने के अंदाज़ पर कोई कैसे बुरा मान सकता है? लेकिन जानते हैं, ऐसी होली कब खेली जा सकती है? अमीर खुसरो अपनी काफी में क्या खूब लिखते हैं- ‘यह शुद्धता, सुन्दरता, सौम्यता एवं दिव्यता वास्तव में तभी इस पर्व में झलकते हैं- जब इंसान अपने मन को गुरु के माध्यम से ईश्वर के रंग में रंग लेता है।’

तो आएँ, इस पर्व की बिगड़ी हुई सूरत को फिर सेखूबसूरत बनाएँ। अमीर खुसरो, बुल्लेशाह, हेमदपंत,हरिदासआदि की तरह अपने मन को ईश्वरीय रंग में रंग कर।फिर भीतर और बाहर- दोनों ओर शुद्धता और पावनता के रंग ही बरसेंगे… न कोई बुरा मानेगा… न कोई बुराकरेगा… और इस पर्व के आने पर सब खुशी से एक स्वर में कह उठेंगे… होली है!

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