New Delhi News, 23 Jan 2022: गणतंत्र दिवस भारत देश का एक राष्ट्रीय पर्व है। जो प्रतिवर्ष 26 जनवरी कोमनाया जाता है। एक स्वतंत्र गणराज्य बनने और देश में कानून का राज स्थापितकरने के लिए संविधान को एक लोकतांत्रिक प्रणाली के साथ लागू किया गया था।उसी प्रकार से हमारे जीवन पर भी एक आध्यात्मिक गणतंत्र लागू होता है। जिसकेविषय में हममें से अधिकांश लोग अनभिज्ञ है। जिसकी आज के परिपेक्ष्य मेंनितांत आवश्यकता भी है। ऐसी शिक्षा-नियम जिससे मनुष्य का भीतरी विकास होसकता है। अध्यात्म जो हमारी भारतीय संस्कृति का मूल है उसी की आवश्यकता हैहमारे जीवन पर लागू करने की।
ऐसा न हो हम अपने जीवन को इसी तरह बदरंग देखते जाए और पतन की खाइयों की ओरले जाएँ। इसीलिए समझना होगा आखिर वह कौन-सी शिक्षा है जिसके विषय में हमारेशास्त्र-ग्रंथ कहते है-सा विद्या या विमुक्तये।विद्या वह है जो मुक्ति प्रदान करें। जो केवल हमारा बाहरी विकास ही नहींकरती अपितु हमारा आंतरिक विकास भी कर देती है। ऐसी ही विद्या की आवश्यकताहै। यह बताना चाहेंगे कि आंतरिक विकास मात्र शिक्षा से नहीं हो सकता। उसकेसाथ-साथ दीक्षा का समन्वय बहुत ज़रूरी है। दीक्षा को परिभाषित करते हुएहमारे वेद-उपनिषद बहुत अच्छा कहते है- ‘जिस प्रकार से भस्म आच्छादित अग्निमुख प्रेरित वायु से दहक उठती है। सही समय पर बोया हुआ बीज पल्लवित एवंपुष्पित हो जाता है। ठीक उसी प्रकार से गुरु के द्वारा उपदिष्ट ज्ञानप्रदत्त आत्मज्ञान एक व्यक्ति/शिष्य/छात्र के जीवन में गुणों को रोपित करताहै।’आज हरव्यक्ति ढाँचों को बदलने का प्रयास कर रहा है। लेकिन ढाँचों में परिवर्तनलाना है तो पहले साँचो में परिवर्तन लाना होगा। इसीलिए शास्त्रों-वेदों-ग्रंथो नेउद्घोष किया कि आचार्यों को पहले स्वयं बाहरी ज्ञान के साथ-साथ उन्हेंआंतरिक ज्ञान होना चाहिए फिर वो एक छात्र का पूर्ण और विकसित विकास कर सकतेहै।आज हमें भी समाज में ऐसी नवीन प्रणाली की आवश्यकता है जो हमारे बच्चों कापूर्ण रूप से विकास करें। उनमें पूर्ण व्यक्तित्व का आगाज़ करें। गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी अक्सर कहते हैं- पूर्ण व्यक्तित्वके निर्माण के लिए बाहरी शिक्षा और भीतरी दीक्षा दोनों का होना आवश्यक है।यही कारण है कि आज महाराज जी समाज के प्रत्येक प्राणी को उस ज्ञान के साथजोड़ रहे है। तभी व्यक्ति के जीवन का आध्यात्मिक गणतंत्र लागू हो रहा है औरव्यक्ति समाज के निर्माण में सहयोग दे पा रहा है।
समय की धाराओं ने रोम, बेबिलोन, सीरिया जैसी अनेकों संस्कृतियाँ बिखर करअपना अस्तित्व खो बैठी। वही भारतीय संस्कृति एक ऐसी संस्कृति है जो इतनीआपदाओं के बाद भी चट्टान की तरह अडिग खड़ी है। क्या कारण है? क्योंकिभारतीय संस्कृति का आधार अध्यात्म है। भारत = भा+रत; भा अर्थात् प्रकाश, रत अर्थात् लीन रहने वाला। भारतवासी जो हमेशा ईश्वरीय प्रकाश में रत है वहीभारतीय है। पुण्य भूमि भारत ने एक समय ऐसा दिया जब प्रत्येक कर्म में धर्म झलकता था।मुख मंडल पर देवत्व की झलक थी। तो धमनियों में त्याग तप का रक्त था। हरक्षेत्र में चर्मोत्कर्ष की प्राप्ति थी चाहे वो वैज्ञानिक आर्थिक सामाजिकराजनैतिक आध्यात्मिक क्षेत्र ही क्यों न हो। तो फिर क्योंविदेशियों-साहित्यकारों ने इस महान भूमि की महिमा का गुणगान किया। हमें तो बुलंद आवाज़ में कहना चाहिए- हम भारतमाँ की संतान है। उस भारत माँ की जिसने हमें गुण ही गुण दिए है। जिसकी रीतमें भी प्रीत है। हमें जागना होगाआध्यात्मिक रूप से। भारत की महिमा से जागरूक होना पड़ेगा। भारत का हृदय स्पंदन उसकी देवसंस्कृति में निहित है। अध्यात्म ही भारत का प्राण-स्त्रोत अथवा जीवन-केन्द्र है। अतएव जब तक भारत में आध्यात्मिक संस्कृति का स्फुरण है, तब तक भारत जीवंत है, अपराजेय है। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।