New Delhi : उस युग का सर्वाधिक तमग्रस्त काल था वह। पापाचार चरम सीमा पर था। श्रीमद्भागवत के एक रूपक के अनुसार उस समय सहस्रों दैत्य राजाओं का रूप धरकर पृथ्वी को आक्रान्त कर रहे थे। इनके दुर्दान्त अत्याचारों से पृथ्वी भयाक्रान्त थी। वे गौ रूप धारण कर करुण स्वर में रंभा रही थी। इस करुण क्रंदन को सृष्टि के पालनहार कैसे अनसुना कर सकते थे? अतः वे असीम परम सत्ता ससीम मानवीय चोले में सिमट कर इस धरा पर उतर आई। मानों अज्ञानरूप अंधकार को चीरता हुआ ज्ञान रूपी पूर्ण चन्द्रमा द्वापर युगीन नभ में उदित हुआ। यह अतिशुभ घड़ी थी, भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी की अर्धरात्रि और यह अवतारी युगपुरुष थे- पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण।
श्री कृष्ण, एक ऐसा अलौकिक व्यक्तित्व जिसे किसी एक परिभाषा से चित्रित ही नहीं किया जा सकता। ये ही तो हैं जिन्होंने संसार में एक ओर तो गोप-गोपिकाओं के माध्यम से प्रेम-भक्ति-विरह की सरस धारा प्रवाहित की, वहीं दूसरी ओर समस्त उपनिषदों को दुहकर गीता रूपी दुग्धामृत अर्जुन के निमित्त से सम्पूर्ण मानव जाति को दिया। माधुर्यपूर्ण प्रेम और धर्म सम्मत ज्ञान का अद्भुत सम्मिश्रण! यही श्री कृष्ण हैं।
इस लीलाधर ने अपने अवतरण काल में अनेकानेक दिव्य लीलाएँ की। ब्रज की कुंज गलियाँ, कंस के अत्याचारों से त्रस्त मथुरा भूमि, कुरुक्षेत्र का महा समरांगण – हर क्षेत्र में इनकी अलौकिक लीलाओं का प्रकाश जगमगाया। ये दिव्य क्रीड़ाएँ तत्समय तो सप्रयोजन थी हीं, आज युगोपरान्त भी हमारे लिए प्रेरणा दीप हैं। साधारण प्रतीत होते हुए भी असाधारण संदेशों की वाहक हैं। एक-एक लीला में गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य संजोया व पिरोया हुआ है। जैसे ग्वालिनों की मटकियों से माखन चुराकर खाना। नन्दनन्दन माखन चोर की यह लीला अत्यंत सांकेतिक है। यह इशारा कर रही है कि संसार द्वैतात्मक है। इसमें माखन रूपी सार एवं छाछ रूपी असार दोनों ही विद्यमान हैं। माखन चुराकर प्रभु यही समझा रहे हैं कि संसार में परम सार तत्त्व अर्थात् ईश्वर का वरण करो, सारहीन माया का नहीं।
बाल-लीलाओं की इस श्रृंखला में विषधर कालिया की मर्दन लीला को ही लें। यह बाललीला भी कुछ कम प्रतीकात्मक नहीं। यहाँ विषधर कालिया हमारे विषाक्त मन का प्रतीक है। उसके सहस्रों विषैले फन हमारे अंतस् में फुँफकारते अगणित विकारों, दुर्भावनाओं के द्योतक हैं। हमारे जीवन की यमुना भी इन वासनात्मक प्रवृत्तियों के कारण विषाक्त हो गई है। जीवन की मिठास लुप्त और शांति भंग होती जा रही है। श्री कृष्ण का यमुना के तल में उतरना प्रतीक है हमारे जीवन में एक पूर्ण गुरु के पदार्पण का। गुरु प्रदत्त ब्रह्मज्ञान द्वारा अंतस् में व्याप्त एक-एक विकार क्षीण होने लगता है। मन नथ जाता है। पूर्णतया विकार रहित एवं समर्पित हो, उस परम सत्ता के दिव्य नृत्य का उचित धरातल बन पाता है।
महारास की दिव्य लीला भी अपने में गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य को संजोए हुए है।रासलीला वह भावलीला है, जिसमें माया, दैहिक आकर्षण व श्रृंगार का कोई स्थान नहीं। देहाध्यास लेशमात्र भी नहीं। यह शरीर का नहीं, अपितु आत्मा का रसपूर्ण नृत्य है।इस दिव्य नर्तन में गोपियाँ आत्मा रूप थीं और श्री कृष्ण परमात्मा स्वरूप! यह प्रत्येक आत्मा का अपने स्रोत परमात्मा के संग आध्यात्मिक संयोग था।पदम्पुराण में वर्णन आता है कि त्रेता के जिन ऋषिगणों की इच्छा प्रभु राम के संग रहने की थी, वे सब ही द्वापर में गोप-गोपियाँ बन कर आए। ऋषि-आत्माएँ अर्थात् गोपियाँ जन्म-जन्मान्तरों से ब्रह्म रस की पिपासु थीं। और जैसा कि कहा भी गया है- वह ब्रह्म ही परम रस है। पारब्रह्म ने श्री कृष्ण रूप में महारास के माध्यम से इसी परम रस की गोपियों पर वृष्टि की। उनकी चिरकालीन आध्यात्मिक पिपासा को शान्त किया।
समग्रतः भगवान श्री कृष्ण की समस्त लीलाएँ दिव्य एवं पारलौकिक हैं।उनका चरित्र अत्यंत उदात्त है।वे शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-चैतन्य रूप हैं।उनको एवं उनकी लीलाओं में निहित गूढ़ार्थों को लौकिक बुद्धि द्वारा नहीं समझा जा सकता।ब्रह्मज्ञान ही उनको समझने की एक मात्र कुंजी है। एक ब्रह्मज्ञानी ही अन्तर्हृदय की गहराइयों में उतरकर इन लीलाओं के मर्म को समझ सकता है। इनसे प्रेरित होकर जीवन में परमानन्द का अनुभव कर सकता है। श्री कृष्ण जन्माष्टमी के इस पावन पर्व पर सभी भागवत् प्रेमियों को दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान का यही सन्देश है कि आप श्री कृष्ण कन्हैया की बाहरी झांकियों को देखने तक ही सीमित न रहें।उसका गुणगान मात्र बाहरी इंद्रियों से ही न सुनें।अपितु इस पर्व को सही मायनों में सार्थक करने हेतु इस अवतारी युगपुरुष को ब्रह्मज्ञान द्वारा तत्त्व से जानने की चेष्टा करें।