जो प्रभु से जुड़कर कार्य करता है वही श्रेष्ठ नर बनता है : साध्वी वैष्णवी भारती

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New Delhi News, 28 Nov 2019 : दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा श्रीमद्भागवत कथा ज्ञानयज्ञ का भव्य आयोजन मयूर विहार, फेज-2, दिल्ली में किया जा रहा है। सर्व श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या साध्वी सुश्री वैष्णवी भारती जी ने षष्ठम् दिवस में भगवान श्रीकृष्ण जी की मथुरागमन लीलाओं का वर्णन किया। उन्होंने बताया कि कंस के आज्ञानुसार अक्रूर जी कन्हैया और दाऊ को मथुरा लिवा लाने के लिए वृंदावन की ओर बढ़ जाते हैं। सारे गांव के अंदर यह समाचार जंगल के आग की तरह फैल गया कि कन्हैया हम सब को छोड़ कर जा रहा है। सभी उनसे मिलने के लिए नंद जी के आंगन में एकत्रित हो गए। सभी ग्वाल और गोपियां कन्हैया को बहुत भावभीनी विदाई देते हैं। वो निकुंज गलियां, जिनमें कभी जीवन मुस्कुराया करता था, आज रूआंसी सी थीं। एक अजीब और निपट उदासी से पटा हुआ था सारा गांव! प्राण से विहीन देह की क्या दशा हो सकती है? जिसकी आत्मा ही निकल जाए वो कैसे जीवंत दिखेगी? वहां के प्राण श्रीकृष्ण थे, आत्मा थे। जब वे मथुरा गए तो सारा गांव शव बन गया। जब अक्रूर जी उनको रथ पर बिठाकर मथुरा की ओर ले गए। प्रभु श्री कृष्ण धर्म की स्थापना हेतु मथुरा नगरी की ओर प्रस्थान कर गये। हमारे भारत देश में धर्म और जीवन एक दूसरे के पर्याय माने गये। धर्म ही जीवन की धुरी है। धर्म के बिना जीवन अधुरा माना गया। क्षेत्र चूडामणि में कहा गया कि बंधू शमशान तक, धन घर तक, शरीर राख होने तक रहता है। केवल धर्म ही कभी साथ नहीं छोड़ता। जीवन को विकासोन्मुख बनाने के लिये धर्म को प्रथम स्थान दिया गया। स्वामी रामतीर्थ जी अक्सरां कहा करते थेकि एक होता है-उधार धर्म दूसरा नगद धर्म। उधार धर्म- सैद्धांतिक है। मत-मान्यताओं, सिद्धांत-धरणाओं तक ही सीमित है। नगद धर्म- एक प्रयोगात्मक विज्ञान है। ईश्वर के तत्व स्वरूप की प्रत्यक्षानुभूति है। परमसत्ता का साक्षात्कार है। आज लोग कहते हैंकि अध्यात्म को धर्मनिपेक्ष होना चाहिए। जो धर्म को एक संप्रदाय समझते हैं वे ही ईष्र्या, वैर, हिंसा को जन्म देने वाली सांप्रदायिकता को उत्पन्न करते हैं। ऐसे में एक दूसरे को बड़ा सिद्ध करने की होड लग जाती है। धर्म तो प्रेम के प्रकाश का पुंज है। ये हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले जाता है। ये समाज को तोड़ता नहीं जोड़ता है। संकीर्णताओं से उपर उठाता है। धर्म का भाव है- भीतरी ईश्वरी सत्ता से जुड़ना। जो प्रभु से जुड़कर कार्य करता है। वही श्रेष्ठ नर बनता है। प्रथम अंतरिक्ष यात्री यूरीगैगरीन जब अंतरिक्ष से वापिस लौटे तो उन से पूछा गयाकि आप को सबसे पहले किस की याद आयी। रूसकी, अमेरिका की या अपने संबंध्यिों की! उन्होने कहा वहां से जब मैंने अपनी धरती को देखा तो मुझे एक ही विचार आया- मेरी पृथ्वी! ऐसे ही आत्मसाक्षात्कार से मानव संकीर्णता से विराटता की ओर बढ़ने लगता है। समाज प्रेम-सौहार्द के रंग में रंगता है। ये सब धर्म के वैज्ञानिक पक्ष को जीवन में क्रियान्वित करने से होगा। उसके उपरांत श्री कृष्ण कंस की रंगशाला में प्रवेश करते हैं। वहां उपस्थित व्यक्तियों की जैसी भावना थी। उन्हें भावनानुसार प्रभु का स्वरूप दिखाई दिया। हमारे महापुरूष कहते हैंकि जल तो एक ही है परंतु पात्रा भिन्न-भिन्न होने के कारण, उनका आकार अलग होने के कारण जल में भी विभिन्नता पायी जाती है। ईश्वर को एक ही भाव प्रिय है और वह है- समर्पण भाव। जिसमें बांसुरी जैसी भक्ति तथा त्याग की भावना हो। जो प्रभु के हाथों का यंत्रा बनना चाहता हो। श्री कृष्ण और दाऊ जी ने कंस के मल्लयोद्धाओ को मार गिराया। चाणूर व मुष्टिक की देह धूल धूसरित देख कंस का क्रोध् सातवें आसमान को छूने लगा।

तदुपरांत भगवान श्री कृष्ण ने कंस का वध कर प्रभु ने एक निरंकुश राजा की सत्ता को समाप्त किया। वर्षो पहले जो आकाशवाणी हुई थी कि देवकी के आठवें गर्भ की संतान कंस का काल होगी। आज सभी ओर एक ही स्वर गुंजायमान हैकि सत्यमेव जयते। एक नृशंस पापी मारा गया और धर्म, न्याय, सत्य की स्थापना हो गयी। कंस द्वारा भेजे असुरों का विनाश कर प्रभु ने उसे बार-बार सावधन किया। परंतु उसने अपने आतंक का विस्तार करना नहीं छोडा। त्रोतायुग में श्री राम ने दण्ड़कारण्य में सत्पुरुषों की अस्थियों का ढेर देखा। यह उस समय के असुरों के आतंकवाद का प्रमाण था। द्वापर में कंस द्वारा भय का वातावरण बनाया गया। कलियुग में भी यह अपनी पराकाष्ठा को स्पर्श कर रहा है। आतंक के वाद में एक ही मनोवैज्ञानिक भावना कार्य करती है। वह है- दहशत का वातावरण बनाना। परंतु विचारणीय बात यह हैकि ये धरणा उत्पन्न कैसे होती है? कारण है- अज्ञानता। अज्ञानता के हाथ में जब शक्ति की खडग आती है तो विध्वंस का रक्तरंजित इतिहास लिख डालती है। इस अज्ञानता के अंधकार का समापन होना चाहिए। आत्म जागृति ही एकमात्रा उपाय है। कंस की दोनों पत्नियां अस्ति तथा प्राप्ति जरासंध् की पुत्रियां थीं। वे अपने पिता जरासंध् के पास वापिस पहुंच गयी। अपनी पुत्रियों के वैध्व्य को जरासंध सहन नहीं कर सका। अनेकों बार प्रभु से प्रतिशोध् लेना चाहा परंतु हर बार असफल रहा। कथा के माध्यम से प्रभु के आप्त एवं उदात्त चरित्रा का प्रस्तुतिकरण किया गया। साथ ही साथ सुमधुर भजनों का गायन भी किया गया।

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