डिजिटल कथा द्वारा समाज को ईश्वर की शाश्वत भक्ति से अवगत कराया गया 

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New Delhi news, 16 July 2021 : दिव्य धाम आश्रम, दिल्ली से  दिनांक 10 से 16 जुलाई 2021 तक दिव्य ‘श्रीमद् भागवत् कथा’ का प्रसारण संस्थान के यूट्यूब चैनल से किया जा रहा है। इस वर्चुअल कथा में देश विदेश से असंख्य लोग सम्मिलित हो भगवान श्री कृष्ण की दिव्य लीलाओं का आनंद उठा रहे हैं। डिजिटल कथा का मुख्य उद्देश्य इस कोरोना काल में समाज को ईश्वर की शाश्वत भक्ति एवं आंतरिक शांति के स्त्रोत  से परिचित करवाना था। कथा के अंतिम दिवस में भगवान श्री कृष्ण की अनन्त लीलाओं में छिपे गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों को कथा प्रसंगों के माध्यम से उजागर करते हुए श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या भागवत् भास्कर महामनस्विनी विदुषी सुश्री आस्था भारती जी ने परीक्षित की परमगति एवं सुदामा का मैत्री भाव आदि प्रसंगों से भक्तों को अवगत करवाया। विदुषी जी ने बताया कि राजा परीक्षित, भय व असुरक्षा से ग्रस्त हैं, जिसके समक्ष हर क्षण मौत मुँह बाए खड़ी थी। फिर भी परीक्षित की मुक्ति केवल हरि चर्चा या कृष्ण लीलाओं को श्रवण करने मात्र से नहीं हुई थी, अपितु पूर्ण गुरु श्री शुकदेव जी महाराज के द्वारा प्रभु के तत्त्व रूप को अपने अंतर में जान लेने से हुई थी। शास्त्रानुसार ‘भिद्यते हृदय ग्रंथी छिद्यन्ते सर्व संशयाः’ हृदय ग्रंथि अर्थात् अज्ञानता व सभी संशयों का नाश गुरु द्वारा दिव्य नेत्र प्राप्त करने पर ही होता है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन का मोह व मोहजनित संशय नष्ट करने हेतु यही कहा था- ‘दिव्यं ददामि ते चक्षु पश्यमेयोगमैश्वरम्’ अर्थात् मैं तुझे दिव्य चक्षु प्रदान करता हूँ। दिव्य चक्षु से परमात्मा के शाश्वत स्वरूप का दर्शन करते ही उसकी समस्त दुर्बलताएँ ऐसे विलीन हो गईं, जिस प्रकार सूर्य के उदित होने पर कुहासा छट जाता है। राजा परीक्षित को भी शुकदेव जी ने ब्रह्मज्ञान प्रदान कर, दिव्य नेत्र जागृत कर उनके लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया था। वेदों में ऋषियों ने यह स्पष्ट कहा है – ‘आदित्यवणं तमसः परस्तात्।’ वह ईश्वर ज्योति की ज्योति परम-ज्योति है। वहाँ न तो चक्षु पहुँच सकते हैं, न ही वाणी, न मन ही, न तो बुद्धि से जान सकते हैं, न ही दूसरों को सुना सकते है। उस प्रकाश स्वरूप परमात्मा का दर्शन केवलमात्र दिव्य दृष्टि के माध्यम से ही किया जा सकता है। समस्त ग्रंथों व महापुरूषों ने उस सत्य स्वरूप परमात्मा को, ईश्वरीय प्रकाश को देखने का सशक्त साधन दिव्य-दृष्टि ही बताया है। यह मात्र शुद्ध आध्यात्मिक उर्जा से ही खुलती है। इस अलौकिक उर्जा के स्रोत केवल और केवल एक पूर्ण गुरु, एक तत्त्ववेत्ता महापुरूष ही होते हैं। 

सुदामा प्रसंग के अन्तर्गत साध्वी जी ने बताया कि सुदामा प्रभु श्री कृष्ण के मित्र होने के साथ उनके अनन्य भक्त भी रहे। दोनों की मित्रता संदीपनी मुनि के आश्रम से प्रारंभ हुई। सुदामा प्रभु से भेंट करने द्वारिका जाते हैं। वहां दोनों की मित्रता की परिपक्वता को सबने देखा। सुदामा के तन पर नाममात्र धोती है तो द्वारिकानाथ भी विशेष परिधनों से सुसज्जित हो कर नहीं आये। सुदामा ने पांव में पादुका नहीं पहनी, सिर पर पगड़ी नहीं है। प्रभु ने भी मुकुट नहीं पहना, नंगे चरण लिये सुदामा से मिलने चले आये। भगवान ने समझाया कि भक्त मुझे जिस भाव से भजेगा, मैं भी उसके उसी भाव को ग्रहण करूंगा। सुदामा ने कन्हैया से कुछ नहीं मांगा परंतु प्रभु ने उन्हें त्रिलोकी का वैभव प्रदान किया। इस कथा की मार्मिकता व रोचकता से श्रद्धालुगण प्रभावित हुए। साध्वी जी ने अपने विचारों में संस्थान के बारे में बताते हुए कहा कि संस्थान आज सामाजिक चेतना व जन जाग्रति हेतु सम्पूर्ण विश्व में आध्यात्मिकता का प्रचार व प्रसार कर रही है। ऐसी ही अन्य कथाओं एवं आध्यात्मिक विचारों को आप आगे भी श्रवण कर सकते है, इसके लिए संस्थान से जुड़ने के लिए YouTube चैनल को subscribe करें एवं आगामी कार्यक्रमों का लाभ प्राप्त करें, चैनल का लिंक इस प्रकार है: https://www.youtube.com/djjsworld

 

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