वैष्णो-देवी की अंतर्यात्रा : आशुतोष महाराज

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New Delhi News, 09 April 2021 : वैष्णो देवी की चढ़ाई आत्मतीर्थ है!मानव-तन माता रानी का ‘बुलावा’ है!‘बाण गंगा’ में डुबकी सत्संग-समागमों में नहाना है!‘चरण पादुका’ गुरु-शरणागति की प्रतीक है!‘गर्भ-जून’ ब्रह्मज्ञान द्वारा दूसरा जन्म है!‘हाथी-मत्था’ तक की चढ़ाई अंतर्जगत की साधना है!गुफा की तीन पिण्डियाँ चेतना की पूर्ण अवस्थाएँ हैं!

माता रानी के प्यारे भक्तो! जरूर आपके जीवन में कभी न कभी माँ वैष्णो केदरबार से चिट्ठी आई होगी। उसे पाते ही आपने शीघ्रतः अटैची बांधी होगी। टिकटखरीदकर जम्मू-स्टेशन पहुँच गए होंगे। फिर कटरा से त्रिकूट पर्वत की 5200 फुट ऊँची चढ़ाई चढ़ी होगी।आइए, आज फिर चलते हैं हम वैष्णो देवी की तीर्थ-यात्रा पर! परन्तु आज की यहचढ़ाई साधारण नहीं, विलक्षण है। एकदम अलग! एकदम अलौकिक! जो बाहरी नहीं, भीतरीहै। जिसमें हमारा तन नहीं, हमारा मन और आत्मा एक उत्थान के पथ पर चढ़तेहैं। चेतना ऊर्ध्वगामी होती है। मन के विकार धुलते हैं। माता के स्थूल दर्शननहीं, उनके तत्त्व रूप के पूर्ण दर्शन मिलते हैं। और सबसे बढ़कर इसे चढ़नेवाला (साधक) स्वयं ही मातृस्वरूप उज्ज्वल हो जाता है!

कहिए, चलेंगे न इस अलौकिक यात्रा पर? क्या कहा- बुलावे की चिट्ठी? अरे भई, वह भी तो मिली है आपको! यह मानव-तन! यह मनुष्य-जीवन! ग्रंथों ने कहा है- भईपरापति मानुख देहुरीआ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ। यह मानव जीवन प्रभु सेमिलन के लिए एक सुनहरा आमंत्रण है! हमारे भीतर समाई परम-सत्ता के घर सेबुलावा है। दरअसल, हमें यह मनुष्य-तन मिला ही इस भीतरी चढ़ाई के लिए है।इसी प्रकार वैष्णो देवी तीर्थ के निर्माण की कथा और उसका चप्पा-चप्पा भीहमें इस अलौकिक यात्रा के लिए प्रेरित करता है। कथा इस प्रकार है। एक बारमाँ के एक सच्चे भक्त श्रीधर ने अपनी झोंपड़ी के बाहर एक भंडारा आयोजितकिया। माँ एक छोटी सी कन्या का रूप धारण कर स्वयं उसमें भोजन परोसने लगीं।कतार में भैरव नाथ भी बैठा था। उसने भगवती को आजमाने के लिए मांस-मदिरा कीमांग की। माँ ने इंकार किया, तो उसने क्रुद्ध होकर हिंसक वार किया। माँ उसीक्षण तीव्रता से चल पड़ीं त्रिकूट पर्वत की ओर।कथा का यह पात्र भैरव नाथ प्रतीक है- हमारे मन के विकारों, पाप वासनाओंका! जगदम्बा मैया प्रतीक हैं, हमारी जीवात्मा की! जब हमें मानव तन रूपीचिट्ठी मिलती है, तब हमारे विकार, हमारी वासनात्मक वृत्तियाँ और धारणाएँ हीबाधक बन जाती हैं। हमें तामसिक आहार-व्यवहार के लिए उकसाती हैं।

जीवात्माइनसे त्रस्त होकर एक ऐसे महिमाशाली ऊँचे मार्ग की तरफ दौड़ना चाहती है, जिसपर चढ़कर वह अपने इन विकारों (भैरव नाथ) से छुटकारा पा सके।कौन सा है यह महान मार्ग? वैष्णो देवी का बाहरी तीर्थ या यूँ कहें कित्रिकूट पर्वत की चढ़ाई इसी महान मार्ग की प्रतीक है। इस तीर्थ या चढ़ाई काएक-एक पड़ाव हमें समझाता है कि हम कैसे अपने जीवन में एक आध्यात्मिक चढ़ाई करसकते हैं।बाहरी तीर्थ का पहला पड़ाव है- बाण गंगा। कथा बताती है कि जब माँ त्रिकूट कीओर दौड़ीं, तो वीर और लंगूर नामक दो अंगरक्षक भी उनके संग हो लिए। राह मेंइन अंगरक्षकों को प्यास लगी, तब माँ ने धरा पर एक बाण मारा। उससे गंगा समानपवित्र धाराएँ फूट पडीं। वीर और लंगूर ने इस सरिता में प्यास बुझाई और पुनःपूर्ण जोश के साथ माँ के संग चल पड़े। आज लाखों तीर्थ-यात्री इस बाण गंगामें स्नान करते हैं। मान्यता है कि इसके द्वारा हमारे पाप-मल धुल जाएँगे।बाण गंगा, पानी ठंडा! जो नहावे, सो होवे चंगा! यह कहावत रटते-रटतेश्रद्धालुगण खूब छक के उसमें डुबकियाँ लगाते हैं। परन्तु बंधुओ, वास्तवमें, यह बाण गंगा केवल एक नदी नहीं है, जिसमें हमें बाहरी तौर पर डुबकियाँलगानी थीं। यह तो प्रतीक है- सत्संग समागमों की। रामचरितमानस में कहा गया-

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला।।
सुनि आचरज करे जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई।।

अर्थात् सत्संग रूपी सरिता में स्नान करने पर जीव का रूपांतरण हो जाता है।सत्संग के सद्विचार हमारे मन के संशयों और कुविचारों को धो डालते हैं।संकल्प और विवेक,जो कि इस मार्ग पर हमारे सहायक और रक्षक हैं,उनको सबलकरते हैं। इसलिए, माँ के भक्तो, अगर सच में माँ की ओर एक सच्ची चढ़ाई चढ़नीहै, तो सबसे पहले आपको इसी पड़ाव से गुजरना होगा यानी संतों से सत्संग सुननाहोगा।वैष्णो देवी का अगला पड़ाव है- चरण पादुका। कहते हैं कि यहाँ माँ ने दो क्षणठहर कर विश्राम किया था। अतः इस स्थान पर उनके चरण अंकित हैं। ये चरण चिह्नशरणागति के प्रतीक हैं। इशारा करते हैं कि सत्संग सुनने के बाद एक जिज्ञासुको किसी पूर्ण गुरु की शरणागति में जाना होगा। देवी पुराण में जब राजाहिमालय माँ भगवती से परमकल्याण की प्रार्थना करते हैं, तो माता रानी स्वयंकहती हैं- गृहीत्वा मम मन्त्रान्वै सद्गुरोः सुसमाहितः अर्थात् सद्गुरुद्वारा मन नियंत्रित करने वाला मेरा उपासना मार्ग प्राप्त करो। मतलब कि एकपूर्ण सतगुरु का सान्निध्य हासिल करो- यही आंतरिक चढ़ाई का दूसरा चरण है।तीसरा पड़ाव है- आदकुंवारी मंदिर तथा गर्भजून गुफा। कथा बताती है कि चरणपादुका स्थल से दौड़ते-दौड़ते माँ ने इस संकरी-सी गुफा में प्रवेश किया। यहाँउन्होंने नौ महीने साधना-उपासना की। उन्हें खोजते-खोजते जब विवाहाभिलाषीभैरव नाथ गुफा के समीप पहुँचा, तो कहते हैं कि एक संत ने उसे झकझोरा था- ‘अरे मूर्ख, देवी भगवती तो आदिकाल से कुंवारी हैं। केवल उस परम पुरुषद्वारा वरण किए जाने की प्रतीक्षा में त्रिकूट पर आई हैं। इसलिए तू उनकापीछा करना छोड़ दे।’ इसी कारण उस स्थल पर आदकुंवारी नामक मंदिर की स्थापनाहुई। पर भैरवनाथ अविचल रहा। जबरन उस गुफा में प्रवेश कर गया। तब माँ नेअपने त्रिशूल से गुफा के दूसरे छोर पर वार किया। अपने लिए मार्ग बनाया औरवहाँ से आगे बढ़ गईं।

इस पड़ाव का यह पूरा प्रसंग बहुत ही सौन्दर्यपूर्ण और संकेतात्मक है। सतगुरुके सान्निध्य में पहुँचकर जीवात्मा को शीघ्र ही यह एहसास होता है कि वह भी ‘आदकुंवारी’ है। आदि काल से परम-आत्मा से योग करने के लिए भटक रही है। तबसाधक व्याकुल होकर इस योग को प्राप्त करने के लिए सतगुरु से ‘ब्रह्मज्ञान’की प्रार्थना करता है। दरअसल, यह ब्रह्मज्ञान की दीक्षा जीव का दूसरा जन्महै। आप देखें, गर्भजून गुफा का आकार संकरा सा और रपटीला, बिल्कुल एक गर्भकी तरह होता है। कथानुसार माँ ने इसमें नौ महीने साधना की थी। देवी पुराणके हिसाब से एक जीव भी इतने ही काल तक अपनी माँ के गर्भ में प्रार्थनारतरहता है- यद्यस्मान्निष्कृतिर्मे स्याद्गर्भदुःखात्तदा पुनः। आपने यह भीदेखा होगा कि इस गुफा में प्रवेश करते ही सब एक साथ जपते हैं- जय माता दी!जय माता दी! पंडित जी कहते हैं कि जो जाप नहीं करेगा, वह बीच रास्ते में हीअटक जाएगा। इसी प्रकार एक शिशु भी गर्भ के भीतर प्रभु-सुमिरन से एक-तारजुड़ा रहता है- गरभ कुंट महि उरध तप करते।। सासि सासि सिमरत प्रभु रहते।।कहने का भाव कि गर्भजून गुफा प्रतीक है गर्भ की और उससे गुजरना दूसरे जन्मका! सद्गुरु हमें ब्रह्मज्ञान देकर यही दूसरा आध्यात्मिक जन्म प्रदान करतेहैं। इसलिए सतगुरु से ब्रह्मज्ञान की दीक्षा पाना- यही आत्मा की आध्यात्मिकचढ़ाई का तीसरा चरण है।इस चरण अर्थात् ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के बाद ही शुरु होती है, साधना कीसंघर्षमय चढ़ाई। आप जानते हैं कि हाथी मत्था तक की चार किलोमीटर की चढ़ाईएकदम खड़ी है। मानो लटकी सूंड के जरिए हाथी के माथे तक पहुँचने जैसी! यह खड़ीचढ़ाई साधना-पथ की दुर्गमता की प्रतीक है। मीरा बाई जी ने इसी भीतरी साधनामार्ग के अनुभव को हमसे सांझा किया- ऊँची-नीची राह रपटीली, पाँव नहींठहराए। सोच-सोच पग धरूँ यतन से, बार-बार डिग जाए…।जानते हैं, इस साधना-मार्ग को इतना ऊँचा और चढ़ाई युक्त क्यों कहा गया? दरअसल, हमारी सारी वृत्तियाँ नीचे की इन्द्रियों में फंसी और उलझी पड़ी हैं।यही कारण है कि वे वासनात्मक हैं। साधना द्वारा साधक को इन्हीं वृत्तियोंको नीचे से समेटकर ऊँचा उठाना है। जैसा कि पड़ाव के नाम से ही जाहिर है- ‘हाथी मत्था’। हमें अपनी वृत्तियों को भी अपने माथे पर स्थित दशम-द्वार तकउठाकर ऊपर लाना है यानी केन्द्रित करना है। इसलिए ब्रह्मज्ञान पाकर दृढ़तासे ध्यान-साधना-सेवा करना- यही आध्यात्मिक यात्रा का चौथा चरण है।परन्तु यात्रा यहाँ भी पूरी नहीं होती। कथानुसार माता रानी भैरव से बचतेहुए उस गुफा पर आती हैं,जहाँ आज भवन निर्मित है। यहाँ गुफा के द्वार पर वेसहसा शेर पर सवार होकर, अपनी अष्टभुजाओं में अस्त्र-शस्त्र लेकर, अपनेपूर्ण दिव्य स्वरूप में प्रकट होती हैं। फिर अपनी खड्ग के एक ही वार सेभैरव का सिर धड़ से अलग कर देती हैं। अंत में, गुफा में प्रवेश कर तीनपिण्डियों के रूप में बदल जाती हैं। यहीं यात्रा का अंत होता है।यह आखिरी प्रकरण हमें आध्यात्मिक यात्रा के आखिरी पड़ाव के बारे में बताताहै। वेदांत के हिसाब से एक साधक ध्यानाभ्यास करते हुए आज्ञा-चक्र (मस्तक)से सहस्रदलकमल (शीर्ष भाग) तक की यात्रा करता है। यह वास्तव में अंतर्जगतकी विकास यात्रा है। इसे करते हुए अंत में एक ऐसा पड़ाव आता है, जब उसकीचेतना पूरी तरह विकसित होकर, अपनी सम्पूर्ण अलौकिकता को प्राप्त हो जातीहै। इसी पड़ाव पर वह अनंत शक्ति से सम्पन्न होकर अपने सारे विकारों-वासनाओंका संहार कर डालता है। पाप मुक्त शुद्ध-बुद्ध-चैतन्य हो उठता है। इस अवस्थापर साधक की देवमय आदिशक्ति चेतना भी एक परम-अलौकिक गुफा में प्रवेश करतीहै। यह गुफा उसके अंतर्जगत- सहस्रदल कमल में ही स्थित है। इस गुफा को वेदोंमें ‘हृदय गुहा’ कहा गया। मान्यता है कि वैष्णो देवी की गुफा में 33 करोड़देवी-देवताओं का निवास है। इसी प्रकार वेदों का कहना है कि हमारी इस आंतरिकगुफा में भी सकल ब्रह्माण्ड, स्वयं ब्रह्माण्डनायक (परब्रह्म) और उसकीसमस्त शक्तियाँ (देवतागण) विराजमान हैं। इसी तरह जैसा कि हम देखते हैं किबाहरी गुफा में अमृत-कुंडों से चरण-गंगा प्रवाहित होती है, वैसे ही-ब्रह्मस्थान सरोजपालसिता ब्राह्मण- तृप्तिप्रदा- इस ब्रह्मस्थान (यानीभीतरी गुफा) से साधक को तृप्त करने वाली शुद्ध अमृत धराएँ बहती हैं। जैसेमाँ इस गुफा में प्रवेश कर हमेशा के लिए स्थित हो गईं, वैसे ही साधना कीअंतिम अवस्था में एक साधक भी इसी गुफा में प्रवेश कर सदा के लिए स्थित होजाता है- गुहां प्रविश्य तिष्ठन्ति।महामाई की तीन पिण्डियाँ प्रतीक हैं त्रिदेवियों की- माँ सरस्वती, माँलक्ष्मी और माँ काली अर्थात् पूर्ण ज्ञान, पूर्ण वैभव और पूर्ण शक्ति। साधकभी इन तीनों तत्त्वों से सम्पन्न होकर ब्रह्म में एकचित्त हो जाता है। इसीके साथ माँ वैष्णो का आत्मतीर्थ सम्पूर्ण होता है।बंधुओ, अवतारों और महापुरुषों द्वारा रचित तीर्थ हमें भीतरी परमानंद सेजोड़ने के लिए बनाए गए थे। ये स्थल मार्गदर्शक नक्शे हैं। इनमें आध्यात्मिकयात्रा के लिए प्रतीकात्मक संकेत या इशारे छिपे हुए हैं। इनकी लकीरों याइशारों को पकड़कर अगर हम एक सच्ची आध्यात्मिक यात्रा करें, तो मनुष्य जीवनसार्थक हो सकता है। हर बार के नवरात्रों भी हमें माँ वैष्णो की यही आंतरिकयात्रा करने की प्रेरणा देते हैं। इसी आत्मतीर्थ पर पहुँचने के लिए मातारानी का बुलावा भी आता है।दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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