जहाँ नारी का निवास हो, वहाँ देवताओं का वास : साध्वी गरिमा भारती
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New Delhi News, 19 Feb 2019 : दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से कुम्भ मेला, प्रयागराज में शिवकथामृत का रसास्वादन करवाते हुए संस्थान के संचालक एवं संस्थापक सर्व श्री आशुतोष महाराज की शिष्या सुप्रसिद्ध मानस मर्मज्ञा महामनस्विनी साध्वी गरिमा भारती ने प्रभु की पावन कथा का व्याख्यान करने हुए कहा, ‘काकभिशुण्ड़ी जी ने गरुड़ जी को याज्ञवल्क्य जी ने भरद्वाज जी व अन्य ऋषि मुनियों को, तथा भगवान शिव जी ने माता पार्वती को यह कथा सुना कर उनकी जिज्ञासाओं को शांत किया। जब माता पार्वती सति रुप में संदेह के कारण भगवान शिव पर विश्वास नहीं कर पाती है, तो संदेह के परिणाम स्वरुप उनका भगवान शिव से वियोग हो जाता है। जब आदि शक्ति को पुत्री के रुप में प्राप्त करने के लिए महाराज हिमवान व माता मैना ने घोर तप किया। आदि शक्ति ने प्रसन्न होकर पुत्री रुप में उन्हें प्राप्त होने का वरदान दिया। आज समाज में पुत्री जन्म को शुभ नहीं माना जाता। समाज का शिक्षित वर्ग कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपराध को सहमति देता हैं। पुत्र की अकांक्षा आज समाज में फैले असंतुलन का कारण बन रही है। रक्षाबंधन, नवरात्रों जिसमें कन्या की कंजकों के रुप में पूजा ही जाती है, यह पावन पर्वो की संस्कृति संकट में पड़ गई हैं। कन्या प्रत्येक परिवार के लिए कितना महत्त्व रखती है, आज का समाज उस महत्त्व को भूल चुका है। हमें संस्कृति कि रक्षा व समाज में संतुलन बनाए रखने के लिए जागना होगा। जो जाग्रति भीतर से ब्रह्म के साथ जुड़ जाने के बाद ही संभव है। एक समय पुत्री के महत्त्व को समझते हुए उसे पाने के लिए तप, यज्ञ किए जाते थे। तप से प्रसन्न होकर ही आदि शक्ति माता पार्वती के रुप में जन्म लेकर हिमवान के घर आईं। पार्वती के रुप में उनका पुनः महादेव से मिलन होता है।
साध्वी जी ने शिव विवाह प्रसंग को बहुत ही रोचकमयी ढंग एवं आध्यात्मिक रहस्यों से परिपूर्ण भक्त जनों के समक्ष समुद्यत किया गया। भगवान शिव जो कि कल्याण के हेतु हैं जिनको आशुतोष भी कहा जाता है जिसका अर्थ है ‘अति शीघ्र प्रसन्न होने वाला’ वे पार्वती से विवाह करने जा रहे हैं। उन्होंने अपने विवाह के समय जो कुछ भी शृंगार किया वह आज मानव जाति के लिए एक संदेश है। भगवान शिव ने अपने सिर के ऊपर जटाएं धरण की, गले में सर्पों की माला, शरीर पर भस्म का लेपन, हाथ में डमरू और त्रिशुल पकड़ा हुआ है इन सभी शृंगारिक चिन्हों के पीछे एक अद्भुत आध्यात्मिकता छिपी हुई है।
भारती जी ने बताया कि संसार में आज विवाह के समय दुल्हा सोने चांदी के आभूषण पहनते हैं, परन्तु भगवान शिव ने अपने गले में सोने चांदी को नहीं अपितु सर्पों को आभूषण के रूप में धरण किया। जिसका तात्त्पर्य यह है कि यदि इंसान सोने चांदी को धरण करता है तो एक दिन यह सर्पों की भाँति इंसान को डस लेगा। जिसके पास यह माया आती है तो उसकी रातों की नींद और दिन का आराम उड़ जाता है। इसके पश्चात् भगवान शिव ने जटाएं धरण की जो कि इंसान की उलझनें व झंझटो का प्रतीक है। उन्होंने अपने तन पर भस्म का लेपन किया जिसके द्वारा उन्होंने शरीर की नश्वरता की ओर इशारा किया है। जब देवतागण उन्हें अपना रूप बदलने के लिए प्रार्थना करते हैं तो भगवान शिव कहतें हैं कि भस्मान्तम शरीरम्। उनके ललाट में चन्द्र सोह रहा है। जो प्रकाश का प्रतीक है। त्रिशुल तीनों तापों को काटने वाले प्रभु के नाम का प्रतीक है। शिव की संस्कृति बहुत महान है जिसके कारण उनके शृंगार अपने भीतर अद्भुत रहस्यों को धरण किए हुए हैं। इस कथा समागम में शहर के गणमान्य विशिष्ट व्यक्तियों ने सम्मिलित होकर आनन्द उठाया व कथा का समापन प्रभु की विध्वित आरती के साथ हुआ।